28 अप्रैल 2018

ऐसी है वो मजदूर औरत :)

( चित्र गूगल से साभार  )

सड़क के किनारे पर बैठी 
वह मजदूर औरत 
जिसे मैं जब भी देखता हूँ 
हमेशा ही उसे पत्थरों
जो के बीच घिरा पाता हूँ 
जो सुबह से शाम तक 
चिलचिलाती धुप में हर दिन 
तोड़ती है पत्थर 
दोपहर हो या शाम 
उसके हाथों की गति नहीं रूकती 
फटे पुराने कपड़ो में लिपटी 
पूरे जोश के साथ लगी रहती है 
अपने काम पर 
काम ही तो उसका कर्म है 
जिसे सहारे वह पेट पालती है अपने परिवार का 
सारा दिन काम कर 
जब उसे उसकी मेहनत का फल मिलता है 
अजीब से मुस्कान होती है चेहरे पर 
ऐसी है वो मजदूर औरत !!

- संजय भास्कर   

16 अप्रैल 2018

माँ तुम्हारी बहुत याद आ रही है :)

माँ- श्रीमति प्रेम लता भास्कर  (९ अप्रैल २००८ )

१० बरस यूँ बीत गए  
पर लगता है कल की ही बात है  
ज़िन्दगी कि उलझनो से
मैं जब भी निराश हो जाता हूँ
टूटकर कहीं बैठ जाता हूँ
दिल यूँ भर आता है
पलकों से बहने लगे समंदर
जब सारी कोशिशे नाकाम हो
उम्मीद दम तोड़ देती है
तन्हाई के उस मंज़र में
माँ तेरी बहुत याद आती है !
आज माँ को गये पूरे १० बरस हो गये लगता है कल ही की बात है माँ कभी मरती है क्या...वो एक अहसास है, वो एक आशीष है इंसान को जीवन देने वाली माँ ही होती है। उसके जीवन को आधार  देने वाली भी माँ ही होती है। एक माँ का दर्जा किसी इन्सान के जीवन में भगवान् से कम नहीं होता...अक्सर जब भी कभी १० अप्रैल ( मेरी माता जी की पुण्य तिथि ) के नजदीक पहुँचता हूँ तो हर साल ऐसा महसूस होता है जैसे सब कुछ ख़त्म हो गया हो अन्दर कुछ भी अच्छा नहीं लगता कोई रिश्ता कोई नाता लगता है जैसे कुछ भी नहीं बचा कहीं न कहीं कोई दबी सी बात तो है जिसकी खबर मुझे भी नहीं, कुछ ऐसा जो लगातार मुझे परेशान करता रहता है वो है मेरी जिंदगी से माँ का जाना मन समझ नहीं पा रहा क्यूँ आज आपकी बहुत याद आ रही है, माँ तुम्हे गए हुए आज 10 वर्ष हो गए तब से ऐसा लगता है जिंदगी में सब कुछ होने पर भी लगता है कुछ नहीं है जब तक आप थी कुछ भी गलती होने पर हमेशा यही सब ठीक हो जाएगा, मैं हूँ न इंसान को जीवन देने वाली माँ ही होती है। वही इन्सान की जननी और पहली गुरु होती है। वही एक बालक को जो संस्कार देती है इसके द्वारा वह एक सफल इन्सान बनता है। माँ का जीवन में वो स्थान होता है जो खाली होने पर कोई भी नहीं भर सकता। माँ के जाने के बाद ये जीवन बेकार सा लगने लगता है माँ एक ऐसा शब्द है जिसको परिभाषित करने का काम काफी लोगों किया लेकिन किसी ने माँ को परिभाषित नहीं कर पाया क्योंकि माँ के बारे में जितना कहा जाए उतना ही कम है माँ हमेशा याद आती है माँ दूर होकर भी पास होती हैं. आप लोगों को शायद नहीं मालूम नहीं होगा माँ के बिना कैसे जी पाते हैं 'मां' अपनी ममता लुटाकर हमें प्रेम और स्नेह का एहसास कराती है. ऐसा माना जाता है कि ममता के निश्छल सागर में गोते लगाकर दुनिया की हर परेशानी और दुख से छुटकारा पाया जा सकता है !!

- संजय भास्कर

04 अप्रैल 2018

..... बनारस और केदारनाथ सिंह :)

केदारनाथ सिंह महज कोई कवि नहीं थे. उन्होंने अपनी कविता के जरिए हर बार समाज की असलियत को बताना चाहा. यूँ तो वह शहर में काफी वक़्त तक रहे, मगर कभी भी उन्होंने अपने गाँव और हिंदी का दामन नहीं छोड़ा. यूँ तो हिंदी के और भी बहुत से कवि थे, मगर केदारनाथ हिंदी को पढ़ते थे, लिखते थे, उसे जीते थे. शायद यही कारण है कि उनकी कविताओं को पूरी दुनिया में पढ़ा जाता है. उनकी कविताओं को यूँ पूरी दुनिया जानती है उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के चकिया गांव के एक छोटे से किसान परिवार में जन्मे केदार नाथ सिंह को ग्रामीण परिवेश के अनुभव सहज ही हासिल हुए अध्ययन और अध्यापन के सिलसिले में वह बनारस, गोरखपुर जैसे शहरों से लेकर दिल्ली महानगर तक में रहे लेकिन अपने गांव-घर से जो संवेदना उन्हें मिली उसे मजबूती से अपनी कविताओं में उतारा। इससे उनकी कविता में एक ओर ग्रामीण जनजीवन की सहज लय रची-बसी, तो दूसरी ओर महानगरीय संस्कृति के बढ़ते असर के कारण ग्रामीण जनजीवन बदलाव भी रेखांकित हुए। वास्तव में केदार ने अपनी कविताओं में गांव और शहर के बीच खड़े आदमी के जीवन में इस स्थिति के कारण उपजे विरोधाभास को अपूर्व तरीके से व्यक्त किया। केदारनाथ सिंह का बनारस और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से खास रिश्ता रहा आरंभिक शिक्षा को छोड़कर सारी पढ़ाई उन्होंने बनारस में ही की जीवन की तरह उनकी कविता में बनारस, उसकी स्मृतियां और छवियां बार-बार प्रकट होती रहीं।
अगर आप भी उनके शब्दों से बनारस देखना चाहते हैं तो उनकी ये कविता आपके लिए:

इस शहर में बसंत
अचानक आता है।
और जब आता है तो मैंने देखा है
लहरतारा या मडुवाडीह की तरफ से
उठता है धूल का एक बवंडर
और इस महान पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती हैं

जो है वह सुगबुगाता है
जो नहीं है वह फेंकने लगता है पचखियां
आदमी दशाश्वमेघ पर जाता है
और पाता है घाट का आखिरी पत्थर
कुछ और मुलायम हो गया है
सीढ़ियों पर बैठे बन्दरों की आँखों में
अब अजीब-सी नमी है
और एक अजीब-सी चमक से भर उठा है
भिखारियों के कटोरों का निचाट खालीपन
तुमने कभी देखा है

खाली कटोरों में बसन्त का उतरना।
यह शहर इसी तरह खुलता है
इसी तरह भरता
और खाली होता है यह शहर
इसी तरह रोज-रोज एक अनन्त शव
ले जाते हैं कन्धे
अन्धेरी गली से
चमकती हुई गंगा की तरफ
इस शहर में धूल
धीरे-धीरे उड़ती है

धीरे-धीरे चलते हैं लोग
धीरे-धीरे बजते हैं घण्टे
शाम धीरे-धीरे होती है
यह धीरे-धीरे होना
धीरे-धीरे होने की एक सामूहिक लय
दृढ़ता से बांधे है समूचे शहर को
इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं हैं
हि हिलता नहीं है कुछ भी
कि जो चीज जहां थी

वहीं पर रखी है
कि गंगा वहीं है
कि वहीं पर बंधी है नाव
कि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊँ
सैकड़ों बरस से
कभी सई-सांझ
बिना किसी सूचना के घुस जाओ इस शहर में
कभी आरती के आलोक में
इसे अचानक देखो
अद्भुत है इसकी बनावट
यह आधा जल में है

आधा मंत्र में
आधा फूल में है
आधा शव में
आधा नींद में है
आधा शंख में
अगर ध्यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं है
जो है वह खड़ा है
बिना किसी स्तम्भ के
जो नहीं है उसे थामे हैं
राख और रोशनी के ऊँचे-ऊँचे स्तम्भ
आग के स्तम्भ
और पानी के स्तम्भ

धुँएं के
खूशबू के
आदमी के उठे हुए हाथों के स्तम्भ
किसी अलक्षित सूर्य को
देता हुए अर्ध्य,
शताब्दियों से इसी तरह
गंगा के जल में
अपनी एक टांग पर खड़ा है यह शहर
अपनी दूसरी टांग से
बिलकुल बेखबर !

लेखक परिचय - केदारनाथ सिंह 
साहित्य जगत में  केदारनाथ सिंह जी के योगदान को सदैव याद रखा जाएगा। 

- संजय भास्कर