02 नवंबर 2010

................सिन्दूर बनके सजता हूँ |



खुशी या गम हो तेरे आंसुओं में ढलता हूँ
तुझे ख़बर है तेरी चश्मे-नम में रहता हूँ
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क्या हुवा जो तेरा हाथ भी न छू सका
तेरे माथे की सुर्ख चांदनी में जलता हूँ
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है और बात तेरे दिल से हूँ मैं दूर बहुत
तुम्हारी मांग में सिन्दूर बनके सजता हूँ
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मैंने माना तेरी खुशियों पर इख्तियार नही
तेरे हिस्से का गम खुशी खुशी सहता हूँ
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तेरा ख्याल मेरे दिल से क्यों नही जाता
जब कभी सामने आती हो कह नही पाता
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तमाम बातें यूँ तो दिल में मेरे रहती हैं
तुम्हारे सामने कुछ याद ही नही आता |
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चित्र :- ( गूगल से साभार  )

नासवा जी ने इतनी सुन्दरता से लिखा कि मैं अपने ब्लॉग पर ही ले आया 

नासवा जी कि कलम से निकली एक बेहतरीन रचना 
दिगम्बर नासवा जी के ब्लॉग से ये कविता आप तक  पहुंचा रहे है संजय भास्कर