19 अगस्त 2010

.........वह तोड़ती पत्थर !

वह तोड़ती पत्थर  !
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर |
वह तोड़ती पत्थर |
कोई न छायादार पेड़ ,वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार ,
श्याम तन, भर बँधा यौवन' ,
नत नयन ,प्रिय कर्म-रत मन 
गुरु  हथौड़ा हाथ ,
करती बार बार प्रहार ,
सामने तरु मालिका अट्टालिका ,प्राकार  |
चढ़  रही थी धूप
गर्मियों के दिन 
दिवा का तमतमाता रूप |
उठी  झुलसाती हुई लू 
रुई ज्यो जलती हुई भू 
गर्द चिनगी छा गई 
प्रायः हुई दोपहर ;
वह तोड़ती पत्थर |
देखते देखा मुझे तो एक बार ,
उस भवन की और देखा छिन्नतार |
देख कर कोई नहीं |
देखा मुझे उस दृष्टि से 
जो मार खा रोई नहीं |
सजा सहज सितार ,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार ,
एक क्षण के बाद वह कांपी सुघर ,
ढुलक माथे से गिरे सीकर ,
लीन होते कर्म में फिर ज्यो कहा-
 ..........  " मै तोड़ती पत्थर "

सूर्यकांत त्रिपाठी ' निराला ' जी के संकलन  "अनामिका " से ये कविता आप तक
 कुछ दिनों पहले  मैं अपने गाँव इलाहाबाद गया था गाँव में ही मझे इस  कविता को पढने का मौका मिला 
यह कविता उत्तर परदेश में नौवी  कक्षा के  बच्चो के अध्याय में पढाई जा रही है 
निराला जी की कविता मुझे बहुत ही पसंद आई तो सोचा क्यों आप सभी की पुरानी यादें ताजा कर दी जाये  इसीलिए मैंने इसे अपने ब्लॉग पर ले आया |