14 अक्तूबर 2012

एक चिथड़ा सुख लिए भटकता हिन्दुस्तान -- संजय भास्कर


इतिहास की अंधी गुफाओं से गुजरते हुए
आर्यो , मुगलों , अंग्रेजों...
और तथाकथित अपनों की
नीचताओं को देखते-देखते
अपनी ऑंखों में हो चुके मोतियाबिन्द को
अपने भोथरे नाखूनों से
खरोंचने की कोशिश में
ऑंखों की रोशनी खो बैठा
वह आदमी
राजमार्गों से बेदखल होकर
पगडंडियों को अपनी घुच्ची निगाहों से
रौंदते हुए घिसट रहा है!

उसकी फटी जेब में
जो एक टुकड़ा सुख चमक रहा है
वह उसका संविधान है
इसे वह जिसको भी दिखाता है
वही अपने को ,
इससे उपर बताता है ।

गोधूलि की बिखरी हुई लालिमा को
अपने सफेद हो चुके रक्त में मिलाकर
जीने की बेशर्म कोशिश में
वह इसके-उसके-सबके सामने
गिड़गिड़ा रहा है,
और अपने पोलियोग्रस्त शरीर को
खड़ा करने की लाचार कोशिश में
बिना जड़ों वाले पेड़-सा लड़खड़ा रहा है।

वह आदमी कोई और नहीं,
अपना हिन्दुस्तान है
जो कभी ‘‘शाईनिंग इंडिया ’‘ की चमक मे खो जाता है
तो कभी ‘ भारत निर्माण ’ के
पहियों तले रौंद जाता है ।

लेकिन उसकी अटूट जिजीविषा तो देखिए
कि टूटी हुई हड्डियों,
पीब से सने शरीर
और भ्रष्टाचार के कोढ़ से
गल चुके अपने शरीर को
रोज अपने खून के आंसुओं से धोता है
और तिरंगे के
रूके हुए चक्र को गतिमान करने की कोशिश में
खुद को ही अपने कंधों पर ढोता है !

 ( चित्र - गूगल से साभार )

मित्र प्रेम लोधी जी एक बेहतरीन रचना  -- एक चिथड़ा सुख लिए भटकता हिन्दुस्तान --  कविता के माध्यम से  गहन सच्चाई को बयाँ किया है !


@ संजय भास्कर