17 अगस्त 2017

साहित्य जगत के लिए बड़ी क्षति कवि चंद्रकांत देवताले का जाना :)

एक बड़ा कवि, अद्भुत संवेदना का स्रोत और ज़िन्दगी का जानकार हमारे बीच से चला गया। ऐसा कवि होना वाकई कठिन होता है जो प्रेम के लिए,मनुष्यता के लिए आज़ादी और जनतंत्र के लिए, स्त्रियों, दलितों, ग़रीबों के साथ संघर्ष में शामिल और हमेशा समर्पित होता रहा है। कविता उसकी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा गहना था।वह
अकविता के शोरगुल के बीच से आया था। लगभग चाकुओं जैसे शब्दों का इस्तेमाल करता था। हड्डियों में छिपे ज्वर को पहचानता था। वह लिखता ही तो रहा जीवन भर। लिखना ही उसकी आत्मा का असली ताप था। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हिंदी के कवि चंद्रकांत देवताले मध्य प्रदेश के बैतूल के जौलखेड़ा में 7 नवंबर 1936 में जन्मे देवताले 1960 के दशक में अकविता आंदोलन के साथ उभरे थे हिंदी में एमए करने के बाद उन्होंने
मुक्तिबोध पर पीएचडी लकड़बग्घा हंस रहा है' कविता संग्रह से चर्चित हुए देवताले इंदौर के एक कॉलेज से रिटायर होकर स्वतंत्र लेखन कर रहे दो लड़कियों के पिता चंद्रकांत देवताले नहीं रहे  !
बहुत समय पहले कविता कोष पर देवताले जी एक कविता पढ़ी थी दो लड़कियों का पिता होने से / और बेटी के घर से लौटना /  उसकी कुछ पंक्तियाँ साँझा कर रहा हूँ

दो लड़कियों का पिता होने से

पपीते के पेड़ की तरह मेरी पत्नी
मैं पिता हूँ दो चिड़ियाओं का
जो चोंच में धान के कनके दबाए
पपीते की गोद में बैठी हैं

सिर्फ बेटियों का पिता होने से
कितनी हया भर जाती है शब्दों में
मेरे देश में होता तो है ऐसा
कि फिर धरती को बाँचती हैं
पिता की कवि-आँखें...

बेटियों को गुड़ियों की तरह
गोद में खिलाते हैं हाथ
बेटियों का भविष्य सोच
बादलों से भर जाता है
कवि का हृदय,

एक सुबह
पहाड़-सी दिखती हैं बेटियाँ
कलेजा कवि का चट्टान-सा होकर भी
थर्राता है पत्तियों की तरह

और अचानक
डर जाता है कवि
चिड़ियाओं से
चाहते हुए उन्हें इतना
करते हुए बेहद प्यार।
बेटी के घर से लौटना / चन्द्रकान्त देवताले

बहुत जरूरी है पहुँचना
सामान बाँधते बमुश्किल कहते पिता
बेटी जिद करती
एक दिन और रुक जाओ न पापा
एक दिन

पिता के वजूद को
जैसे आसमान में चाटती
कोई सूखी खुरदरी जुबान
बाहर हँसते हुए कहते कितने दिन तो हुए
सोचते कब तक चलेगा यह सब कुछ
सदियों से बेटियाँ रोकती होंगी पिता को
एक दिन और
और एक दिन डूब जाता होगा पिता का जहाज

वापस लौटते में
बादल बेटी के कहे के घुमड़ते
होती बारीश आँखो से टकराती नमी
भीतर कंठ रूँध जाता थके कबूतर का

सोचता पिता सर्दी और नम हवा से बचते
दुनिया में सबसे कठिन है शायद
बेटी के घर लौटना !

उनका जाना सिर्फ एक बड़े कवि का जाना नहीं है,बहुत से कवियों के अभिभावक का जाना है ऐसे सच्चे निस्स्वार्थ चंद्रकांत देवताले जी को विनम्र नमन !!

-- संजय भास्कर