12 अप्रैल 2022

......बेटी के घर से लौटना :)

 चन्द्रकान्त देवताले जी एक कविता बेटी के घर से लौटना साँझा कर रहा हूँ !!


बहुत जरूरी है पहुँचना
सामान बाँधते बमुश्किल कहते पिता
बेटी जिद करती
एक दिन और रुक जाओ न पापा
एक दिन


पिता के वजूद को
जैसे आसमान में चाटती
कोई सूखी खुरदरी जुबान
बाहर हँसते हुए कहते कितने दिन तो हुए
सोचते कब तक चलेगा यह सब कुछ
सदियों से बेटियाँ रोकती 
होंगी पिता को
एक दिन और
और एक दिन डूब जाता होगा पिता का जहाज

वापस लौटते में
बादल बेटी के कहे के घुमड़ते
होती बारीश 
आँखो से टकराती नमी
भीतर कंठ रूँध जाता थके कबूतर का

सोचता पिता सर्दी और नम हवा से बचते
दुनिया में सबसे कठिन है शायद
बेटी के घर लौटना !
- चन्द्रकान्त देवताले

- संजय भास्कर

10 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (13-04-2022) को चर्चा मंच       "गुलमोहर का रूप सबको भा रहा"    (चर्चा अंक 4399)     पर भी होगी!
--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
-- 
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'    --

आलोक सिन्हा ने कहा…

बहुत बहुत सुन्दर रचना

Anuradha chauhan ने कहा…

बेहतरीन रचना।

Meena Bhardwaj ने कहा…

यथार्थ को प्रस्तुत करती भावपूर्ण रचना ।

Amrita Tanmay ने कहा…

हृदय स्पर्शी प्रस्तुति। देवताले जी को पढ़कर मन भींग गया।

Meena Bhardwaj ने कहा…

हृदयस्पर्शी … देवताले के सृजन को साझा करने के लिए हार्दिक आभार ।

Kamini Sinha ने कहा…

सोचता पिता सर्दी और नम हवा से बचते
दुनिया में सबसे कठिन है शायद
बेटी के घर लौटना !
ओह ! बेहद मार्मिक ,मेरे पापा भी मेरे घर से नम आखों से ही विदा होते थे। बहुत सुंदर सृजन,साझा करने के लिए आभार संजय जी


नमस्कार संजय जी,
आप जो मेरे ब्लॉग पर टिप्पणी कर रहे है वो मेरे कमेंट लिस्ट में तो दिख रहा है पर ब्लॉग पर नहीं दिख रहा है,पता नहीं क्या वजह है।
आपको कुछ समझ आये तो बताईयेगा जरूर।

विमल कुमार शुक्ल 'विमल' ने कहा…

बहुत सुंदर लिखा गया।

डॉ 0 विभा नायक ने कहा…

mere mn ke bahut kareeb rachna.

बेनामी ने कहा…

हृदयस्पर्शी