पुस्तक चर्चा कुछ मेरी कलम से टंगी खामोशी संग्रह समीक्षा.....लेखिका रचना दीक्षित :)
कुछ दिनों से व्यस्तताएँ बढ़ गई है पर व्यस्त जीवन से कुछ समय बचाकर....आज दीदी रचना दीक्षित जी के संग्रह "टंगी खामोशी" की चर्चा......पहले रचना दी के संग्रह की कविता.......विकास की इबारत पढ़ते है फिर आगे
आज कल देखती हूँ
हर शाम
लोगों को बतियाते, फुसफुसाते
जाती हूँ करीब
करती हूँ कोशिश
सुनने की समझने की
कि पास के बाग में
पेड़ों पर रहते हैं भूत
नहीं करती विश्वास उन पर
पहुँचती हूँ बाग में
देखती हूँ हरी भरी घास
छोटे नन्हें पौधों को अपनी छत्रछाया में
बढ़ने और पनपने का अवसर देते
चारों तरफ फैले बड़े ऊँचे दरख़्त
कुछ भी असहज नहीं लगता
बढती हूँ दरख्तों की ओर
अचानक कुछ आहट, सरसराहट
पत्तों में कंपकंपाहट
अचानक सांसों को रोकने से
उठती अकुलाहट
बडबडाती हूँ मैं
मैं अदना सा इंसान
न बाउंसर, ना बौडी बिल्डर
भला मुझसे क्या और कैसा डरना
मेरी बात से हिम्मत पा
एक नन्हा पौधा बोल ही पड़ा
हम तो डरते हैं
आप जैसे हर किसी से
क्योंकि हम नहीं जानते
कब किस वेश में आ जाय
यमराज रूपी कोई बिल्डर......
आभासी दुनिया में लिखते पढ़ते बहुत सारे ब्लॉग से जुड़ा और तभी रचना दी के ब्लॉग को पढ़ा जो की रचना रविंद्र" ब्लॉग के माध्यम से ब्लॉगिंग मे सक्रिय थी उनकी बहुत सारी कवितायें पढ़ने को मिली और बहुत कुछ सीखने को मिला बहुत से विषयों पर कविताएँ पढ़ी साथ ही साथ ही मुझे और मेरी पत्नी प्रीति को रचना दीक्षित दीदी से मिलने का सौभाग्य और दीदी का आशीर्वाद भी मिला दी से पहली बार उनसे मिलने पर मुझे बेहद अपने अपने पन का अहसास हुआ.....कभी लगा ही नहीं कि मैं बड़ी लेखिका से मिल रहा हूँ....
आज रचना दी के कविता संग्रह " टंगी खामोशी " (शब्दों की मित्वयता के साथ जीवन जीने की विवशता) के बारे मे "टंगी खामोशी" पिछले कुछ वर्षो में लिखी कविताओं का शानदार संग्रह है........काव्य संग्रह जिसे पढ़ने के बाद एक अलग ही अनुभव हुआ उसी से जुड़े कुछ विचार आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ रचना दी को "रचना रविंद्र" ब्लॉग के माध्यम से ब्लॉगिंग मे सक्रिय है रचना दीदी के काव्य संग्रह की कवितायेँ ख़ामोशी और शब्दों के बीच का सेतु है संग्रह मे देहलीज़, फुर्सत, अहसास, समय का दर्द, इमारतें, गुमनाम विरासत, धागे, दस्तक, ख्वाब और खामोशी, साँसे, अब से रावण नही मरेगा, दायरे, अनेको रचनाएँ बेहतरीन है......
संग्रह पर रचना दीक्षित दी भी लिखती है ये किताब मेरी कविताओं का एक पुलिंदा नहीं, ये आइना है, जिसके सामने मैं अपने आप को रोज़ खड़ा पाती हूँ ! देखती हूँ दबे पाँव सरकता समय, कभी सैलाब में बहती खामोशी, कभी सलीब पर टंगी खामोशी, कभी आँगन में बिखरी खामोशी। बस यही सब भूला, बिसरा, छूटा, छिटका, ठिठका सहेजने की कोशिश मात्र है ये संकलन बचपन के बीते बहुत सी स्मृतियों को सामने को आज के समय मे ढूढने का अनर्थक प्रयास!
रिश्ते खून के, हूँ प्यार के, दोस्ती के, समाज के जिस भी रिश्ते को ताउम्र पकड़ कर, जकड कर रखना चाहा सूखी सूनी रेत की तरह भरभराकर कर गिरते रहे। नहीं जानती रिश्तों की नीव कमजोर थी या मेरी उन पर पकड़ जरूरत से ज्यादा सख्त। सभी के साथ होता है ये सब पर सब के अनुभव अलग अलग है, उनकी छाप अलग अलग है! मन के किस हिस्से में कितना प्रभाव शब्दों के माध्यम से उतरता है
मेरी कविताओं में कहीं विचार उद्वेलन तो कहीं भावों की तीव्रता मिलेगी, कहीं बेचैनी,आकांक्षाएँ और चिंताएं इनके जन्मे शब्द मुझे मुंह न खोलने को मजबूर करते रहे और रचनाएं रचती गयीं कुछ रचनाएँ सीधा प्रश्न करती है जैसे
बचपन से सुनती आई हूँ
आप सब की ही तरह
पैसा ही जीवन है.
पैसा आना जाना है.
पैसा हाथ का मैल है !
प्रकृति की विनाश लीला को दर्शाती रचना जो बिल्डर, टिंबर मर्चेन्ट, नदियां प्रदूषित करने वाले उद्योगपती, कितने कितने रूप में आते हैं यमराज
जेठ की दुपहरी का अनोखा रोमांस...पिया मिलन और रोमांस को एक बेहतरीन अंदाज़ में प्रस्तुत किया है।
सभी अपने दायरों में सीमित हैं शायद प्रकृति से जाने अनजाने सीख ही लेते हैं हम.कुछ अच्छा या कुछ बुरा....
एक वयोवृद्ध बांस
झुकता नहीं
टूटता है टूट कर गिरता है
उस नन्हीं कोपल पर
कभी अपने आप से अलग करने
कभी उस समूह से अलग करने को
बनी हैं ये दूरियां आज भी
कोई सुखी है या नहीं
प्रकृति की घटनाओं के साथ जीवन का अद्भुत सामंजस्य है।
प्रकृति का सूक्ष्मावलोकन प्रशंसनीय है
प्रकृति अनेकों रूप में उपलब्ध है .. शायद हम अभी तक नहीं समझ पाएपरमात्मा की इस सृष्टि में कुछ भी व्यर्थ नहीं होता..इसके पीछे भी कोई राज होता है
महाभारत घर घर में ही होता है द्वंद्व भी सम्बन्धों का यहीं है रावण भी हमारे अन्दर है दिल ओर दिमाग का द्वंद तो जीवन भर चलता रहता है न खत्म होने वाली जंग है जिसका धागा दिमाग के पास रहता है
अनभुझे प्रश्न..............
क्यू कागज़ पर लिखा रिश्ता नही होता आबाद शायद रिश्ता मन पर लिखा होता है गहरी अभिव्यक्ति...दस्तक देते रहते हैं कितने ही ऐसे प्रश्न........
पर कलम को बोलना आ गया
यूँ तो मैं जुबान खोलती नहीं
पर आँखों को खोलना आगया
लोगों को कभी तोलती नहीं
पर शब्दों को तोलना आ गया
अपनी गांठे कभी खोलती नहीं
पर यूँ लगता है अब खोलना आ गया
बहुत खूब.......
परिस्थितियाँ मन कि मिठास को कहीं पीछे कर देती हैं .... इसको पुन: स्थापित कर लेना कठिन सा लगता है मिठास बरकरार रहे समय के साथ साथ बहुत कुछ भूलने लगता है ... कठोर लम्हे भी कभी कभी कड़वाहट भर देते हैं
सब कहते हैं
मेरी माँ ने
मेरे शरीर में रोपी थीं कुछ
नन्हीं कोपलें गन्ने की
तब जब थी मैं उनके गर्भ मे
समय के साथ बढती रही
मैं और वो फसल हंसना, खिलखिलाना......
मेरी और से काव्य संग्रह के लिए रचना दी को हार्दिक बधाई
Bluerose Publisher से प्रकाशित इस संग्रह को प्राप्त कर सकते हैं या फिर रचना जी से भी संपर्क कर सकते है
रचनाकार -- रचना दीक्षित
पुस्तक का मूल्य – 180/-
प्रकाशक - Blue Rose Publisher Dehli- 110002