21 अप्रैल 2014

अब आंगन में फुदकती गौरैया नजर नहीं आती -- संजय भास्कर



अब आंगन में फुदकती गौरैया नजर नहीं आती। शहर में आजकल वो बात ही नहीं पर पर अभी कुछ साल पहले तक जब  भी जब गाँव जाता था देखा करता था हर सुबह दादी और चाची आंगन में चावल साफ़ करती है  तो आंगन की मुंडेर पर कुछ गौरैया अपने आप ही मंडराने लगती है और चाची के थाली लेकर हटते ही गौरैया आंगन में बिखरे चावलों पर टूट पड़ती थी पर अब आंगन में फुदकती गौरैया नजर नहीं आती !
बटेर अब कभी-कभार ही दिखते है। वनों की कटाई और वन क्षेत्र में बढ़ते मानवीय दखल से पंछियों की दुनिया प्रभावित हुई है और पंखों वाली कई खूबसूरत प्रजातियों के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है ! 
'मसूरी की पहाड़ियों की सैर करने वाले सैलानियों के लिए बटेर एक खास आकर्षण होती थी। अब कभी कभार ही यह बटेर नजर आती है। यह लुप्त होती जा रही है। हर घर के आंगन में गौरैया को फुदकते हुए देखा जाता था। आज गौरैया नजर नहीं आती....!!!


( c)  संजय भास्कर 



02 अप्रैल 2014

.............कल्पना नहीं कर्म :))

कल शाम जब मैं अपने ऑफिस से घर के लिए निकला तो देखा एक कॉफी शॉप पर कुछ युवा मदहोश होकर धूम्रपान कर रहे है व नशे में डूबे हुए है तथा थोड़ी ही देर में एक दूसरे को गलियां  देने लगे व मार पीट पर उतर आये 
जो कुछ देर पहले तक एक दूसरे के साथ मदमस्त थे वही एक दुसरे को मारने पर उतारू है यह सब देख कर यह छोटी सी कविता लिखी है.........उम्मीद है आपको पसंद आएगी  !!!
चित्र :- ( गूगल से साभार  )
कॉफी हाउस में बैठा
आज का युवा वर्ग
मदहोश , मदमस्त, बेखबर
कर्म छोड़ कल्पना से
संभोग करता हुआ
निराशा को गर्भ में पालता हुआ
मायूसियो को जन्म दे रहा है
तो ऐसे कंधो पर
देश का बोझ
कैसे टिक पायेगा ? जो
या तो खोखले हो गये है
या जिनको उचका लिया गया है
ए - दोस्त -
बाहर निकलो इस संकीर्ण दायरे से
कल्पना को नहीं कर्म को भोगो
अपने कंधे मजबूत करो
इन्ही कंधो को तो
यह देश यह समाज निहारता है
अपनी आशामयी, धुंधली सी
बूढी आँखों से...........!!!

(c) संजय भास्कर