करीब 2012 से मैं
अशोक जमनानी
जी से जुड़ा हुआ हूँ जमनानी जी के लेखन से मैं बहुत प्रभावित हूँ उनके अपार स्नेह के कारण ही उनके बारे में लिखना
संभव हो पाया है 2013 में मुझे आशोज जमनानी जी की दो किताबें प्राप्त हुई .....
बूढी डायरी और खम्मा खम्मा
बूढी
डायरी जबलपुर - भेड़ाघाट मार्ग पर एक छोटा सा गाँव है तेवर इस गाँव को
देखकर कोई सोच भी नहीं सकता की ये पुराणों में वर्णित सुप्रसिद्ध नगरी
त्रिपुरी है आज तेवर में एक बावड़ी ,कुछ प्रतिमाएं ,कुछ मूर्तियां और कुछ
अवशेष प्राचीन वैभव की कहानी सुनाते है लेकिन गाँव में रहने वाले बहुत से
लोगो को पता भी नहीं है की उनके गाँव और घरों के नीचे हजारों वर्ष पुरानी
गौरव गाथाएं छुपी हुई है ...अशोक जी से काफी लम्बे समय से परिचय
है......बहुत ही संजीदा लेखक है !
बूढी डायरी की कहानी एक .... एक
भौतिकवादी जमींदार का पौत्र है जिसके पिता एक विरक्त, आदर्शवादी व्यक्ति
हैं जिनका जीवन गांधीवादी मूल्यों से जीने में बीता है। यह गांधीवादी पिता
अपनी आँखों के सामने विवश हो देखता है कि किस प्रकार उसका पुत्र उसके
रास्तों को न चुनकर अपने दादा की तरह जमींदारी ठाठ-बाट और भौतिकवादी
मूल्यों पर आधारित जीवन जीता है। पिता पुत्र को रोकने का प्रयास नहीं करता,
केवल गांधीवादी उपायों से प्रायश्चित करता है। पूरे उपन्यास में पिता की
उपस्थिति एक साये की तरह है। वह अनीति देख तो सकता है, पर अनीति को होने से
रोक नहीं सकता। यहाँ हम किसे याद करें? भीष्म को? या धृतराष्ट्र को?
किंतु
नायक सत्य का जीवन विवाह के बाद धीरे-धीरे नया मोड़ लेता है। नायिका
“धारा” सत्य के जीवन में संस्कृति और का कला का प्रवेश है। धारा के आने के
बाद नायक और पिता के संबंध रोचक परिवर्तनों से गुजरते हैं, पर एक औसत
राजपूत परिवार की तरह, पिता-पुत्र के बीच न्यूनतम दूरी मिटती नहीं।
बूढ़ी
डायरी एक शापित समाज की कहानी कहती है। वह शापित समाज जिसे कभी समृद्धि और
वैभव का वरदान प्राप्त था। वह समाज जिसे शाप मिला है कि वह ने केवल अपने
वैभव को विवश अपने समक्ष लुटता देखे बल्कि स्वयं उस लूट में लुटेरों का
बढ़-चढ़कर साथ भी दे। यदि यह सत्य है कि हमारे समाज पर ऐसा कोइ शाप है, तो
विश्वास कीजिये “बूढ़ी डायरी” जैसे प्रयास एक दिन इसी समाज के लिये वरदान
सिद्ध होंगे, इसमें कोई संदेह नहीं वृद्ध पूरे एक वर्ष तक हर
रविवार को अपनी डायरी के माध्यम से अपनी स्वर्गवासी पत्नी को संबोधित करता
है. वृद्ध की लेखनी में एक विशेष प्रकार का मर्म उत्पन होता है जिसकी
आत्मीयता को पाठक अपने हृदय में अनुभव कर सकता है.
इस
कहानी का बूढ़ा नायक दीवाली पर अपना पुराना बक्सा खोलता है और उसमें रखा
पुराना सामान देखकर उसे अपने बीते वक्त की याद आ जाती है तब वो यह ग़ज़ल अपनी
डायरी में लिखता है :-
सोचा था जो बीत गए वो बरस नहीं फिर आएंगे
आज पुराना बक्सा खोला तो देखा सब रक्खे हैं /
फाड़ दिए थे वो सब खत जो मेरे पास पुराने थे
मन का कोना ज़रा टटोला तो देखा सब रक्खे हैं /
यादों के संग बैठ के रोना भूल गया जाने कब से
आंखें शायद बदल गयी हैं आंसू तो सब रक्खे हैं
रातों को जो देर दूर तक साथ चलें वो नहीं कहीं
नींद ही रस्ता भटक गयी है ख्वाब तो सारे रक्खे हैं /
फिर कहने को जी करता है बातें वही पुरानी सब
सुनने वाला कोई नहीं है किस्से तो सब रक्खे हैं /
इस
पुस्तक को आज मैंने दूसरी बार पढ़ा तब पुस्तक पर अपने विचार व्यक्त कर रहा
हूँ उनकी ये चमक दूर -दूर तक पहुचे इसके लिए मेरी और से एक बार पुन:
अशोक जमनानी जी को ढेरों शुभकामनाएँ......!!
पुस्तक – बूढ़ी डायरी
लेखक --
अशोक जमनानी
पुस्तक का मूल्य – 250/
प्रकाशक - तेज प्रकाशन ९८ दरियागंज नई दिल्ली -110002
पुस्तक प्राप्ति हेतु लेखक से सीधा सम्पर्क किया जा सकता है।
रचनाकार का पता :-
अशोक जमनानी
हजूरी सात रास्ता
होशंगाबाद ( मध्य प्रदेश )
( C ) संजय भास्कर