( चित्र गूगल से साभार )
सड़क के किनारे पर बैठी
वह मजदूर औरत
जिसे मैं जब भी देखता हूँ
हमेशा ही उसे पत्थरों
जो के बीच घिरा पाता हूँ
जो सुबह से शाम तक
चिलचिलाती धुप में हर दिन
तोड़ती है पत्थर
दोपहर हो या शाम
उसके हाथों की गति नहीं रूकती
फटे पुराने कपड़ो में लिपटी
पूरे जोश के साथ लगी रहती है
अपने काम पर
काम ही तो उसका कर्म है
जिसे सहारे वह पेट पालती है अपने परिवार का
सारा दिन काम कर
जब उसे उसकी मेहनत का फल मिलता है
अजीब से मुस्कान होती है चेहरे पर
ऐसी है वो मजदूर औरत !!
- संजय भास्कर
11 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर....,हृदयस्पर्शी.....,कर्मरत रहने का संदेश देती रचना :)
बढ़िया रचना
काम ज्यादा और मेहनताना कम; ये बात हमेशा कचोटती है मुझे.
स्वागत है गम कहाँ जाने वाले थे रायगाँ मेरे (ग़जल 3)
औरत को जहाँ भी पाओगे कर्मरत ही देखोगे
विषय उम्दा चयन है
वाआआह बहुत ही शानदार 👍👌
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, कश्मीर किसका !? “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
बहुत ही अच्छा
सरल ,सुन्दर !
बहुत सुन्दर
जो मेहनत को ही जानती है ...
भीक उसे मजबूर करती है और धुप दीप्तिमान ...
सुन्दर रचना संजय जी ...
बहुत खूब
सुन्दर
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