17 मार्च 2013

अक्सर मैं -- संजय भास्कर

आप सभी ब्लॉगर साथियों को मेरा सादर नमस्कार काफी दिनों से व्यस्त होने के कारण ब्लॉगजगत को समय नहीं दे पा रहा हूँ  पर अब आप सभी के समक्ष पुन: उपस्थित हूँ अपनी नई कविता के साथ उम्मीद है आप सभी को पसंद आयेगी.......!!

 
अक्सर मैं यह
नहीं समझ पाता
की लोग प्रायः
गंदे व फटे हुए हुए
कपड़ो में
मासूम बचों का
यही रूप क्यों 
देखते है
कि वह भिखा
री है
वह उसके कपड़ो के
पीछे की जर्जर व्यवस्था
उसकी गरीबी ,लाचारी
समाज की प्रताडना
को क्यों नहीं देख पाते .............!!!

चित्र - गूगल से साभार
 
@ संजय भास्कर  


53 टिप्‍पणियां:

  1. प्रस्तुति चित्र को बेहद सुन्दरता से परिभाषित किया है आपने संजय भाई हार्दिक बधाई स्वीकारें

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  2. यह लाचारी और बेबसी ही है अन्यथा कौन गन्दा दिखना चाहता है. ऐसा किसी का शौक तो कम ही होता है.

    संवेदनशील प्रस्तुति.

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  3. बढ़िया प्रस्तुति-
    आभार प्रिय भास्कर--

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  4. अक्सर मैं यह
    नहीं समझ पाता
    कि लोग प्रायः
    गंदे हुए व फटे हुए
    कपड़ो में
    मासूम बच्चों का
    यही रूप क्यों
    देखते है
    कि वह भिखारी है
    वह उसके कपड़ो के
    पीछे की जर्जर व्यवस्था
    उसकी गरीबी ,लाचारी
    समाज की प्रताडना
    को क्यों नहीं देख पाते ...........
    सब की सोच एक जैसी
    कहाँ होती है .....
    शुभकामनायें !!

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  5. कोमल मन की कोमल उड़ान, समाज के लिए, बधाई संजय जी

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  6. ये समय का फेर है संजय जी .... जो ऊंचा उठ जाता है उसे बस गंदा ही नज़र आता है ... उसके अंदर का दिल नहीं दिखाई देता ... कारण दिखाई नहीं देता ..

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  7. सटीक अभिव्यक्ति ....!!

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  8. बहुत सही लिखा है अधिक तर लोग निगेटिव ही सोचते हैं |
    आशा

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  9. पीछे की जर्जर व्यवस्था
    उसकी गरीबी ,लाचारी
    समाज की प्रताडना
    को क्यों नहीं देख पाते----
    sarthak our sachhi baat kahi
    sunder racna

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  10. सब अपनी अपनी भावनाओं के अनुरूप ही देखते है,पर ज्यादातर लोग उसकी मजबूरी को नही देखते,,,

    Recent Post: सर्वोत्तम कृषक पुरस्कार,

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  11. भास्कर जी उतना सब देखने के लिए भावनात्मक आँखें चाहिए आज की आपाधापी में किसे फुरसत है

    कविता मन तक पहुची बधाई

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  12. आज की ब्लॉग बुलेटिन ताकि आपको याद रहे - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  13. वाह!
    आपकी यह प्रविष्टि कल दिनांक 18-03-2013 को सोमवारीय चर्चा : चर्चामंच-1187 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

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  14. संवेदनशील यही जीवन है

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  15. विचारणीय प्रस्तुति

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  16. ह्र्दय की गहराई से निकली अनुभूति रूपी सशक्त रचना...भास्कर जी

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  17. बहुत सुद्नर आभार अपने अपने अंतर मन भाव को शब्दों में ढाल दिया

    आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
    एक शाम तो उधार दो

    आप भी मेरे ब्लाग का अनुसरण करे

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  18. लाचारी और बेबसी क्या न कराये,बहुत ही सार्थक कविता की प्रस्तुति,आभार.

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  19. हर आदमी में सच्चाई को स्वीकार करनें का साहस नहीं होता है !!
    आभार !!

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  20. बढ़िया .....लिखते रहिय खुश रहिये

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  21. शब्द विहीन कर दिया संजय तुम्हारी इस कविता ने

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  22. बहुत सार्थक प्रस्तुति...

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  23. सच कहा, हमें तो व्यवस्था का ही दोष दिखता है।

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  24. जर्जर व्यवस्था ....समाज की प्रताडना.. ....
    के बीच हम सबको भी जीना जो पड़ता है ..तभी चुपी साध लेते हैं ..आंख मूंद लेते हैं ..
    ....मार्मिक प्रस्तुति ....

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  25. मार्मिक प्रस्तुति संजय भाई .समाज बंधे बंधाये ढर्रे पे सोचने का आदि हो चला है .

    (कपडों ,प्रताड़ना )

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  26. सोच बदल जाए तो समाज ही न बदल जाय....
    दुखद है.

    अनु

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  27. ऊपरी आवरण को देख कर निर्णय करने की आदत
    -छिपी वास्तविकता को पहचानने की दृष्टि पर छाई हुई है!

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  28. Yehi to prashn...hai... jo samaj ki khokhali maansikta ko pradrshiit karta hai..

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  29. विचारणीय बात कही है आपने ... अभिव्‍यक्ति के माध्‍यम से ...
    आभार

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  30. यह तो बहुत गम्भीर समस्या है हमारे समाज की कि हम किसी व्यक्ति का आकलन उसके वस्त्रों या उसकी जेब से ही करते हैं। उसके गुण, उसकी दिक्कतें, उसकी समस्या सब गौण हैं।
    बहुत सुन्दर रचना! बधाई आपको।

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  31. sabke pas mn ki aankhen nahi hoti ..sanjay jee .....isliye jo dekhna chahiye wo nahi dekh paate ....

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  32. sochne par majbur karti hai aap ki post

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  33. बहुत सुन्दर भाव.

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  34. you don't write like the typical writers and trust me this is the thing that makes you one of a kind...loved your writings..and thanks for the visit to my blog. keep writing !

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  35. गहन विचार...मार्मिक रचना...

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  36. बहुत अच्छी रचना ..ध्रतराष्ट्र की सरकार है तो सभी की आँखें होकर भी नहीं हैं..होली की ढेर सारी बधाई..म

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  37. वह उसके कपड़ो के
    पीछे की जर्जर व्यवस्था
    उसकी गरीबी ,लाचारी
    समाज की प्रताडना
    को क्यों नहीं देख पाते .......


    bahut hi sundar aur prabhavshali rachana .....aabhar sanjay ji

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  38. बहुत विचारणीय मुद्दा रखा है आपने...गरीबी को उपेक्षा की दृष्टि मिली पर उसको दूर करने के लिए अपेक्षित कदम नहीं उठाए जाते...गरीबी एक अभिशाप की तरह बन गई है...उन फटे कपड़ों के पीछे भी कोमल मन होते हैं...हमारे मन में उनके लिए कुछ करने की भावना होनी चाहिए...
    इस पोस्ट के लिए आपको बधाई..
    सादर/सप्रेम
    सारिका मुकेश

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  39. Awesome post ...thanks for sharing ..kudos !!!!

    do visit :
    http://swapnilsaundarya.blogspot.in/2013/03/a-cup-of-tea-with-divya.html

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  40. संजय जी, वस्त्रों के कारण ही समाज में लोग मूल्यांकन करते हैं, भीतर देखने के लिए तो संत की आँख चाहिए..सुंदर पोस्ट !

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  41. मार्मिक एवं सटीक ....
    http://boseaparna.blogspot.in/

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  42. bikul sahi kaha aapne.......par afsos ki yahi vidambana h

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  43. बहुत मार्मिक रचना..

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- संजय भास्कर