( चित्र गूगल से साभार )
रोजगार की तलाश में
घर से बहुत दूर बसे लोग
ऊब जाते है जब
खाकर होटलो का बना खाना
तब अक्सर ढूंढते है माँ के हाथों की बनी रोटियां
पर नहीं मिलती
लाख चाहने पर भी वो रोटियां
क्योंकि कुछ समय बाद
याद आता है की घर तो छोड़ आये
इन्ही रोटियों के लिए !!
- संजय भास्कर
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 07.06.2018 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2994 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद
संवेदना जगााती हुई सुंदर रचना..
जवाब देंहटाएं"याद आता है की घर तो छोड़ आये
जवाब देंहटाएंइन्ही रोटियों के लिए !!"
हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति संजय जी । हर नौकरीपेशा की व्यथा को प्रकट करते भाव ।
बहुत सुन्दर कविता.
जवाब देंहटाएंजीवन की सच्चाई है ये ...
जवाब देंहटाएंरोटी के लिए स्वाद भरी रोटी छोड़ते लोगों को अकसर देखा है ...
सच कहा संजय जी। माँ के हाथों की रोटियों की बात ही कुछ और हैं।
जवाब देंहटाएंवाह!!संजय जी ,बहुत सुंदर !! सही कहा आपनें रोटी के लिए माँ के हाथ की रोटियाँ छोडनी पडती है । लाजवाब भावाभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंभावमय करती अभिव्यक्ति .....
जवाब देंहटाएंभाव विभोर करती रचना
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंखाकर होटलो का बना खाना
तब अक्सर ढूंढते है माँ के हाथों की बनी रोटियां
पर नहीं मिलती
ये तो आपने मन भिगोने वाली बात लिख दी प्रिय संजय | माँ के हाथ की रोटियों का संसार में कोई विकल्प नही | पर आजिविका के लिए पलायान आज के युग की सबसे बड़ी जरूरत बन क्र रह गया है | मेरी हार्दिक शुभकामनाएं स्वीकार हों |
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना
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