19 अप्रैल 2012

बेटे और बेटियो में फर्क क्या यही मॉडर्न समाज की पहचान है......?

बेटे और बेटियो में फर्क क्या यही सभ्य समाज की पहचान है ।



आज हमारे देश के पुरुष प्रधान समाज में जिस तरह से लड़कियों और महिलाओं के साथ भेद भाव किया जाता है उससे पीछा छुड़ाना कोई आसान काम नहीं है पर सामाजिक स्तर पर इस कमी को दूर करने के लिए कड़े उपाय होने चाहिए !
आज के समय में अभीवावक ही बच्चों के शत्रु बनते जा रहे है। सबसे ज्यादा भ्रूण हत्याओं में शिक्षित और शहरी वर्ग के लोग शामिल हैं। एक पुरूष से स्त्री की शक्ति तीन गुना अधिक है, इसलिए कन्या को देवी का दर्जा दिया गया है।
अक्सर कई माता-पिता कहते हैं कि वे लड़के-लड़की में भेद नहीं करते। पर यह किसी भी दृष्टि से समानता नहीं है बल्कि विध्वंस है। समस्या यह है कि हम पीछे की बात नहीं समझते। हमें शरीर दिख रहे हैं कि यह स्त्री है और यह पुरूष। सोचिए कि प्रकृति गर्भ में कैसे तय करती है कि पुरूष कौन होगा और स्त्री कौन? दोनों के अलग-अलग गुण हैं। स्त्री और पुरूष को अलग-अलग रास्तों से गुजरना है।
परंपरा में ऎसी कई चीजें आई जिसे हम अंधविश्वास कहने लगे। मां का यह कर्तव्य है कि वह बेटी को अच्छी स्त्री बनना सिखाए। बच्ची के पास ज्ञान नहीं पहुंचता कि किन गुणों के कारण स्त्री है। नतीजा यह है कि दिनों-दिन तलाक के मामले बढ़ रहे हैं। वह शरीर से तो स्त्री है पर उसके गुण स्त्रिओ जैसे नहीं है। वह पुरूष बन रही है और पुरूष तो पुरूष है ही।
आज लड़कियां कॅरियर की लड़ाई में प्रतियोगी हो गई हैं। वे लड़कों की तरह सोचने लगी हैं। पुरूष सूरज है तो महिला चंद्रमा। महिलाओं में धैर्य, प्रेम, निष्ठा, दया जैसे गुण होने चाहिए। चंद्रमा के यही गुण हैं लेकिन समस्या यह है कि लड़कियों का इमोशनल लेवल कम हो रहा है। स्थिति यह है कि आज लड़कियां, स्त्री होने के गुण को नहीं समझ रही हैं क्योंकि उनकी माताएं उन्हें इसकी शिक्षा ही नहीं दे रही हैं। 
क्या यही सभ्य और मॉडर्न समाज की पहचान है ? बेटी की सबसे बड़ी दुश्मन है हमारी सामाजिक रूढियां। बेटा न हो तो समाज में लोग ताना मारते हैं। जरूरत बेटे और बेटी में अंतर बताने वालों को ताना मारने की है। जिस देश में " इंदिरा गांधी " और " मदर टेरेसा " जैसी हस्तियां हुई, वहां ये दुर्दशा सोच का विषय है। आज भी देखें तो राष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, लोकसभा में विपक्ष की नेता जैसे बड़े पदों पर महिलाओं का परचम लहरा रहा है। फिर भी लोग यह कुरीति छोड़ने को तैयार नहीं। जरूरत है नई चेतना की,जो सिर्फ शिक्षा के माध्यम से ही आएगी । उदाहरण के तौर पर केरल सामने है। केरल देश का सबसे शिक्षित प्रदेश है और वहाँ पर लिंगानुपात में महिलाओं की संख्या पुरूषों से ज्यादा है.....!!

-- संजय भास्कर 



 



06 अप्रैल 2012

ब्लॉग जगत की बड़ी शख्सियत गुरदेव समीर लाल.....संजय भास्कर

आज कई दिनों बाद ब्लॉग पढने के लिए ओपन किया तो सबसे पहले समीर लाल जी की  रचना  ....बुरा हाल है ये मेरी जिन्दगी का...... उसे पढने के बाद अचनाक गुरदेव समीर जी  की करीब दो साल पुरानी रचना |
की कुछ लाइन याद आ गई जो आपको भी याद होगी शायद....... !!!!


अर्थी उठी तो काँधे कम थे,
मिले न साथ निभाने लोग
बनी मज़ार, भीड़ को देखा,
आ गये फूल चढ़ाने लोग... !


समीर लाल जी ब्‍लॉगजगत की ऐसी शख्सियत हैं जिनकी जितनी भी तारीफ की जाए कम है इनका लेखन जिस विषय पर भी हो प्रत्‍येक शब्‍द दिल को छूकर गुज़र जाता है चाहे किसी भी विषय पर लिखे शब्द अपने आप बनते चले जाते है जो उनकी ऊर्जावान जीवन शैली का प्रतीक है.........!




 .......... मुझे बहुत ही पसंद आई  आई समीर लाल जी के बारे में लिखना तो बहुत समय से चाहता था पर समय के आभाव के कारण नहीं लिख पाया पर आज इन पंक्तियो के याद आते ही समीर जी के लिए लिखने का समय निकल ही लिया और सोचा आप सभी को इस रचना से दोबारा रूबरू करवा दूं समीर जी की रचनाओ का कायल हूँ मैं और ब्लॉग जगत में शामिल होने के बाद करीब दो सालो से समीर जो पढ़ रहा हूँ उनके लिखने का अंदाज ही अलग है जो हमे बहुत ही भाता है .......समीर जी का ब्लॉग जब भी पढता हूँ तो बस एक ही शब्द ज़बान पर आता है जय हो गुरदेव समीर जी ! मुझे उनकी हर पोस्ट से कुछ न कुछ सिखने को मिलता है मैं हमेशा यही चाहता हूँ की समीर जी हमेशा मेरा मार्गदर्शन करते  रहें ...........!!!




दुनिया दिखावे की :--


अर्थी उठी तो काँधे कम थे,
मिले न साथ निभाने लोग
बनी मज़ार, भीड़ को देखा,
आ गये फूल चढ़ाने लोग...
दुनिया दिखावे की हो चली है. कोई भी कार्य जिसमें नाम न मिले, लोग न जाने- कोई करना ही नहीं चाहता. दिखावा न हो तो बस फिर मैं!!
जिस भी कार्य में मेरा फायदा हो, वो ही मैं करुँगा. संवेदनशीलता मरी. साथ मरी सहनशीलता. अहम उठ खड़ा हुआ दस शीश लेकर. एक कटे और दस और खड़े हो जायें. कोई झुकना ही नहीं चाहता. कोई सहना ही नहीं चाहता.
छोटी छोटी बातें, जो मात्र चुप रह कर टाली जा सकती हैं, वो इसी अहम के चलते इतनी बड़ी हो जाती हैं कि फिर टाले नहीं टलती.
कब और कैसे सब बदला, नहीं जानता मगर बदला तो है.
कुछ दिन पहले किसी बहाव में एक रचना उगी थी:


tree1


दो समांतर रेखायें
साथ चल तो सकती हैं..
अनन्त तक..
लेकिन
मिल नहीं सकती...
मिलने के लिए उन्हें
झुकना ही होगा..
आओ!!
थोड़ा मैं झुकूँ
थोड़ा तुम झुको!!
यूँ तो
तुमसे मिलने की चाह में
मैं पूरा झुक जाऊँ
लेकिन
डर है कि
अधिक झुकने की
इस कोशिश में
टूट न जाऊँ मैं कहीं...
और
तुम्हें तो पता होगा!!
टूटे हुए वृक्ष सूख जाया करते हैं!!
- समीर लाल ’समीर’ 

इसी के साथ समीर जी की एक पुरानी आपको पढवाते है !
...............................समीर की लेखनी से बहुत प्रभावित हूँ समीर जी की लेखनी में बहुत दम है, समीर लाल जी बहुत ही लोकप्रिय लेखक व हर ब्लाग पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले चर्चित टिप्पणीकार है। उनका स्वंय का जीवन भी किसी उपन्यास से कम नहीं है। उनके बारे में लिखना ही किसी बड़ी उपलब्धि है !
और एक बात हमे अबी तक समीर जी मिलने का सोभाग्य ही प्राप्त नहीं हुआ.....पर यह इच्छा कभी तो पूरी होगी !


-- संजय भास्कर