( चित्र गूगल से साभार )
सड़क के किनारे पर बैठी
वह मजदूर औरत
जिसे मैं जब भी देखता हूँ
हमेशा ही उसे पत्थरों
जो के बीच घिरा पाता हूँ
जो सुबह से शाम तक
चिलचिलाती धुप में हर दिन
तोड़ती है पत्थर
दोपहर हो या शाम
उसके हाथों की गति नहीं रूकती
फटे पुराने कपड़ो में लिपटी
पूरे जोश के साथ लगी रहती है
अपने काम पर
काम ही तो उसका कर्म है
जिसे सहारे वह पेट पालती है अपने परिवार का
सारा दिन काम कर
जब उसे उसकी मेहनत का फल मिलता है
अजीब से मुस्कान होती है चेहरे पर
ऐसी है वो मजदूर औरत !!
- संजय भास्कर
बहुत सुन्दर....,हृदयस्पर्शी.....,कर्मरत रहने का संदेश देती रचना :)
जवाब देंहटाएंबढ़िया रचना
जवाब देंहटाएंकाम ज्यादा और मेहनताना कम; ये बात हमेशा कचोटती है मुझे.
स्वागत है गम कहाँ जाने वाले थे रायगाँ मेरे (ग़जल 3)
औरत को जहाँ भी पाओगे कर्मरत ही देखोगे
जवाब देंहटाएंविषय उम्दा चयन है
वाआआह बहुत ही शानदार 👍👌
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, कश्मीर किसका !? “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छा
जवाब देंहटाएंसरल ,सुन्दर !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंजो मेहनत को ही जानती है ...
जवाब देंहटाएंभीक उसे मजबूर करती है और धुप दीप्तिमान ...
सुन्दर रचना संजय जी ...
बहुत खूब
जवाब देंहटाएंसुन्दर
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