08 मई 2010
बस्तों के बोझ में दबे ........मासूम बच्चे..!!!
स्कूलों के नए सत्र आरभ होने से बच्च पर बसतो का बोझ लादना शुरू हो गया है
शनिवार की सुबह साढ़े छह बजे मासूम सा दिखने वाला एक बच्चा अपने दो साथियों के साथ पीठ पर आठ किलो का बस्ता लिए पैदल ही स्कूल चला जा रहा था। देखने में उसकी उम्र लगभग आठ वर्ष रही होगी। पीठ पर बस्ता होने के नाते आगे की ओर झुका हुआ वह अपनी धुन में आगे बढ़ा जा रहा था।
वैसे उसके शरीर का कुल वजन 20 किलो से अधिक नहीं होगा। पूछने पर अपना नाम विशाल कुमार बताया, जो कि नगर के एक महंगे कान्वेंट स्कूल में पढ़ता है। विशाल तो महज एक बानगी है। उसके जैसे तमाम ऐसे बच्चे हैं जो कम उम्र में ही बस्ते के बोझ तले दबे जैसे-तैसे शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। यह निजी शिक्षा पद्धति का नमूना है। जहां दूसरी व तीसरी कक्षा के छात्रों के पास काफी पुस्तकें हैं। उनका बोझ भी कम नहीं। छह से आठ किलोग्राम तक की पुस्तकें ढोना कान्वेंट स्कूलों ने बच्चों की नियति बना दी है।
मासूम बच्चे बस्तों के बोझ उठाकर कम उम्र में ही कमर जनित बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। निजी विद्यालयों में महंगी किताबों के साथ ही महंगी फीस जहां अभिभावकों को परेशान कर रही है वहीं छात्र भी बस्ते के बोझ तले दबे हुए हैं।
हालत यह है कि केजी वन से लेकर केजी थ्री तक पढ़ने वाले एक बच्चे का सलाना विद्यालय शुल्क हजारों रुपये आता है। ऊपर से महंगे यूनिफार्म तथा आए दिन स्कूल फी के अलावा विद्यालय प्रबंधन की डिमांड से अभिभावक भी पेशोपेश में आ जाते हैं।