26 फ़रवरी 2010

सफर



सफर

मीलों दूर तक जाना है,

एक नया जहाँ बनाना है,

झुकना मना है, थकना मना है,

मंजिल से पहले रुकना मना है !

पता है मुश्किलें तो आयेंगी,

मुझको, मेरे हौसले को आज़मायेंगी,

पर मैं न डरूंगी, मैं न मरूंगी,

सीने में सैलाब लिए,

मुश्किलों पर ही टूट पडूँगी !

इन मुश्किल हालातों में,

अचानक मेरे ख्यालों में,

किसीकी मुस्कान याद आती है,

उसकी प्यारी बातें दिल के तार छेड़ जाती है,

कोई था, जो मुझे अकेला छोड़ गया,

सारे रिश्ते, सारे बंधन,

एक पल में ही तोड़ गया !

जब आँखें भर आती है,

और यादें तडपाती है,

उसकी आवाज़ कहीं से आती है,

हौसला ना हार,

कर सामना तूफ़ान का,

तू ही तो रंग बदलेगा आसमान का !

करता जा अपनी मंजिल की तलाश;

तेरे साथ चलेंगे ये दिन ये रात;

चलेगी ये धरती, ये सकल आकाश !

काटों को फूल समझता चल;

बाधा को धूल समझता चल;

पर्वत हिल जाए, ऐसा चल;

धरती फट जाए ऐसा चल;

चल ऐसे की, तूफ़ान भी शरमाये

तेज़ तेरा देखकर,

ज्वालामुखी भी ठण्ड पर जाए !


Babli ji, aapne bahut khoobsoorat likha
mujhe itna pasand aaya ki apne blog par bhi post kar diya.

http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com






24 फ़रवरी 2010

कोई आँखों से बात कर लेता है ,


  कोई आँखों से बात कर लेता है ,
 कोई आँखों से मुलाकात कर लेता है |
 बड़ा मुस्किल होता है जवाब देना  ,
 जाओ कोई खामोश रह कर सवाल कर लेता है |

22 फ़रवरी 2010

पहचानिए निज भाषा के महत्व को

 


संयुक्त राष्ट्र संघ के एक अध्ययन के मुताबिक 5300 भाषाओं/बोलियों पर अस्तित्व का संकट मंडरा रहा है। अगर इस वैश्विक भाषा संकट को न भी समझ पाएं, तो भी अपने इर्द-गिर्द हम ऐसे तमाम समुदाय देख सकते हैं, जहां नई पीढ़ी अपनी पारंपरिक सामुदायिक भाषा को या तो भूलती जा रही है या पूरी तरह से भूल चुकी है।
भाषाओं और बोलियों पर यह संकट बहुत छोटे स्तर से शुरू होकर बहुत बड़े स्तर तक फैल रहा है। जाहिर है सबसे ज्यादा संकट मातृभाषाओं या निज-बोलियों पर ही है। सवाल है एक ऐसे दौर में जब दुनिया फैलती जा रही है, सरोकार वैश्विक हो रहे हैं, इंटरैक्शन ग्लोबल हो चुका है।
 कहने का मतलब यह है कि बड़े स्तर पर जहां पूरी दुनिया में एकरूपता आ रही है, वहीं स्थानीय स्तर पर या कहें छोटे स्तर पर देशों के अंदर भी इसी तरह की अंतर्देशीय एकरूपता अथवा समरूपता आ रही है। इस समरूपता ने कई चीजों को सार्वभौम बनाया है। मसलन खानपान, पहनावा, काम-धंधे और शिक्षा-दीक्षा के साथ-साथ संपर्क की भाषा को भी एकरूपता देने की कोशिश की गई है।
मातृभाषा दरअसल वह भाषा होती है, जिसमें हम सबसे पहले संपर्क करना या संवाद करना सीखते हैं, लेकिन जरूरी नहीं है कि किसी की मातृभाषा वही हो जो उसकी मां की हो, क्योंकि ज्यादातर यह देखने को मिलता है कि मां के बजाए पिता की भाषा ज्यादा वर्चस्वशाली होती है, खासकर भारत जैसे पारंपरिक पुरुषवादी समाज में तो यही बात देखने को मिलती है।
मातृभाषाएं कम से कम भारत जैसे देश में तो विशुद्ध रूप से मातृभाषा ही नहीं होती, वह स्थानीय व कबीलाई भाषा होती हैं। चूंकि इन भाषाओं में बाजार, कारोबार, पढ़ाई और औपचारिक रिश्तों का संपर्क या तो है ही नहीं या बहुत कम है। इसलिए भी यह भाषाएं सिर्फ मौखिक भाषाएं बनकर रह गई हैं और अब जबकि मौखिक स्तर पर भी इन भाषाओं का कम इस्तेमाल हो रहा है तो जाहिर है कि विलुप्त होने की तरफ बढ़ेंगे ही।

21 फ़रवरी 2010

ए बादल तू नाराज क्यो है



ए बादल तू नाराज क्यो है
क्यो गरज रहा रूठ कर
सनम हमसे मिल जो रहे है
तेरी बूंदों में घुल कर !


हमारे मित्र आनंद के ब्लॉग से ये कुछ पंक्तियाँ  आप तक

16 फ़रवरी 2010

सबसे ज्यादा प्यार करते है |



चाहते जो हद से ज्यादा किसी को ,
वही तो सबसे ज्यादा तकरार करते है ,
करो न फिकर अगर वो नाराज हो जाये ,
नाराज होते है वही ,
जो सबसे ज्यादा प्यार करते है |

संजय भास्कर

15 फ़रवरी 2010

तितलियों के दीदार के लिए तरसती हैं अब आंखें।



गांव-देहात के बागों की हरियाली, रंग-बिरंगे खिलखिलाते फूल और उनपर मंडराती रंग-बिरंगी तितलियां! इस खूबसूरत मंजर को देखकर सारी थकान छू मंतर हो जाती थी लेकिन वक्त बदला तो आबोहवा भी बदल गई। अब इन फूलों पर तितलियां नहीं मंडरातीं। बागबां हैरान-परेशान है। प्रकृति की इस अनोखी छटा को दीदार के लिए तरसती हैं अब आंखें।
दरअसल अब गौरैया, चील व गिद्ध के बाद तितलियां भी कम दिखती है। आम तौर पर वसंत के दिनों में रंग-बिरंगी आकर्षक तितलियां सहज ही लोगों का मन मोह लेती थीं। नीली, पीली, हरी, काली, सफेद, बैंगनी वगैरह-वगैरह तमाम रंगों में पंख फैलाए फूलों का रस चूसती तितलियों को देख बच्चे उसे पकड़ने के लिए घंटों मशक्कत करते थे। यहां तक कि बड़े भी इन तितलियों के आकर्षण पाश में बंध कर खिलखिलाते थे। अब ये सारी बातें इतिहास बनती जा रही है।