अब आंगन में फुदकती गौरैया नजर नहीं आती। शहर में आजकल वो बात ही नहीं पर पर अभी कुछ साल पहले तक जब भी जब गाँव जाता था देखा करता था हर सुबह दादी और चाची आंगन में चावल साफ़ करती है तो आंगन की मुंडेर पर कुछ गौरैया अपने आप ही मंडराने लगती है और चाची के थाली लेकर हटते ही गौरैया आंगन में बिखरे चावलों पर टूट पड़ती थी पर अब आंगन में फुदकती गौरैया नजर नहीं आती !
बटेर अब कभी-कभार ही दिखते है। वनों की कटाई और वन क्षेत्र में बढ़ते मानवीय दखल से पंछियों की दुनिया प्रभावित हुई है और पंखों वाली कई खूबसूरत प्रजातियों के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है !
'मसूरी की पहाड़ियों की सैर करने वाले सैलानियों के लिए बटेर एक खास आकर्षण होती थी। अब कभी कभार ही यह बटेर नजर आती है। यह लुप्त होती जा रही है। हर घर के आंगन में गौरैया को फुदकते हुए देखा जाता था। आज गौरैया नजर नहीं आती....!!!
( c) संजय भास्कर