02 दिसंबर 2012

मेरे पिता ही मेरी माँ -- 2- दिसम्बर जन्मदिन पर विशेष

 2 - दिसम्बर आज मेरे पापा का जन्मदिन है सबसे पहले पापा जी को जन्मदिन की  ढेर सारी शुभकामनायें.
पापा जी को एक छोटी सी भेंट कविता के रूप में .....................!!
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आप मेरे जीवन में
अदृश्य रूप से 
शामिल अपना 
अस्तित्व बोध 
करवाते 
बेशक माँ नहीं
मगर माँ से 
कम भी नहीं
माँ को तो मैंने
अपनी साँसों के 
साथ जान लिया 
मगर आपको 
आप जिसके कारण
मेरा वजूद 



अस्तित्व पाया
आपको , आपके स्पर्श 
को जानने में 
पहचानने में
मुझे वक्त का
इंतजार करना पड़ा
और फिर वो 
भीना भीना
ऊष्म स्पर्श 
जब पहली बार
मैंने जाना
तब खुद को 
संपूर्ण माना

मेरी ज़िन्दगी 
के हर कदम पर
मेरी ऊंगली थामे
आपका स्नेहमय स्पर्श
हमेशा आपके
मेरे साथ होने 
के अहसास को
पुख्ता करता गया
मेरे हर कदम में
होंसला बढाता  गया
मुझे दुनिया से 
लड़ने का जज्बा
देता गया
मुझे पिता में छुपे
दोस्त का जब 
अहसास हुआ 
तब मैंने खुद को
संपूर्ण पाया |

अब एक मुकाम 
पा गया अस्तित्व मेरा
मगर आप अब भी
उसी तरह 
फिक्रमंद नज़र आते हो
चाहे खुद हर 
तकलीफ झेल जाओ
मगर मेरी तकलीफ में
आज भी वैसे ही 
कराहते हो
अब चाहता हूँ
कुछ करूँ 
आपके लिए
मगर आपके
स्नेह, त्याग और समर्पण
के आगे मेरा 
हर कदम तुच्छ 
जान पड़ता है
चाहता हूँ 
जब कभी जरूरत हो
आपको मेरी 
आपके हर कदम पर
आपके साथ खड़ा रहूँ मैं................... !!!




जन्मदिन की  ढेर सारी शुभकामनायें.....................!!!!!


@ संजय भास्कर  


21 नवंबर 2012

दुआ फलती नहीं तो क्या हुआ-- राजेश कुमारी ( ह्रदय के उदगार )

उसकी दुआ तुझ पे फलती नहीं तो क्या हुआ
वक्त के साथ घडी चलती नहीं तो क्या हुआ !!

बाजुओ में तेरे ताकत आज भी है बहुत
रहम की भीख तुझे नहीं मिलती तो क्या हुआ !!

पेट की आग तो वो भी बुझा लेते है
अब चूल्हे में लकड़ी जलती नहीं तो क्या हुआ !!

कूद जाते है फल खुद ही दरख्त से
डाली अब नरमी से झुकती नहीं तो क्या हुआ !!

तर जाते है सागर भी हिम्मत वाले
पहुचने की कश्ती नहीं मिलती तो क्या हुआ !!

उस रब की इबादत पे भरोसा रख तू
अब के किस्मत तेरी चमकी नहीं तो क्या हुआ !!

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 आदरणीय राजेश कुमारी ब्लॉगजगत की जानी मानी शक्सियत है
जिन्हें ब्लॉगजगत में -- हिंदी कविताये आपके विचार -- ब्लॉग के माध्यम से जाना जाता है और चर्चा मंच की एक उम्दा चर्चाकार है !
ब्लॉग के माध्यम से तो राजेश कुमारी जी बहुत समय से पढता आ रहा हूँ पर मेरी मुलाकात राजेश कुमारी जी से परिकल्पना समारोह में लखनऊ में हुई वहाँ से लौटने के बात उनकी कविता संग्रह ( ह्रदय के उदगार ) को  पढने का मुका मिला .......... उसी से जुड़े कुछ विचार आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ !

राजेश कुमारी जी का ब्लागर बनने का सफ़र --
नेट पर सर्च करते करते ब्लोगिंग का पता चला और ब्लॉग शुरू कर दिया पर वास्तविकता कुछ और है बहुत रोचक घटना है मेरी ब्लोगिंग के पीछे बहुत दिनों से आप सब से शेयर करना चाहती थी सो आज आज सोचा कुछ अलग लिखूं |
ब्लोगर से पहले मैं ओर्कुटर थी ऑरकुट एक फेस बुक की तरह की वेब साईट शायद अधिकतर लोग जानते होंगे ,खूब मजे से ओर्कुटियाते थे एक से बढ़कर एक चित्र चिपकाते थे ,लोग टिपियाते थे|एक बार मेरे एक ऑरकुट मित्र मुकन्दा/आक्रोशित मन (आजकल कवी विद्रोही रवि भी लिखते हैं)ने एक फोटो पोस्ट की भैंस  पर  खड़ा  हुआ लड़का ,फिर क्या था टिप्पणियों की बौछार हो गई|मुझे भी उस चित्र  ने आकर्षित किया जैसे ही मैं टिपण्णी करने लगी तो मुझे सबसे ऊपर एक टिपण्णी दिखाई दी जो किसी दीनदयाल शर्मा जी की थी लिखा  था ---फोटो मेरा और वाह वाही पाओ तुम कम से कम मेरा नाम तो लिख दिया होता पहले तो मैंने सोचा शायद भैंस के ऊपर जो लड़का है उसका कमेन्ट है किन्तु अगली टिपण्णी में बात साफ़ हो गई जिसमे लिखा था फोटो खींचूँ मैं और टिप्पणियाँ बटोरो तुम ---सच मानिए ये टिप्पणी का मजेदार सिलसिला काफी लम्बा चला फिर मैंने उत्सुकता वश दीनदयाल जी की प्रोफाइल को खोलकर देखा वहां उनके ब्लॉग का लिंक पाया दीनदयाल शर्मा उसपर क्लिक किया तो देखा वो एक बहुत जाने माने राष्ट्रपतिके हाथों से सम्मानित एक बाल साहित्यकार  हैं उनकी बहुत सी बुक प्रकाशित हो चुकी हैं |बस वहां से आइडिया मिला और अपना ब्लॉग क्रियेट किया ,इस तरह मेरे ब्लॉग का जन्म हुआ !


.........................मेरी और से राजेश कुमारी जी को काव्य - संग्रह " ह्रदय के उदगार " के लिए हार्दिक बधाई और ढेरो शुभकामनायें ।

पुस्तक का नाम –  ह्रदय के उदगार

रचना कार --    राजेश कुमारी

पुस्तक का मूल्य – 299/

आई एस बी एन – 978-93-82009-20-7

प्रकाशक - ज्योतिपर्व प्रकाशन 99,ज्ञान खंड -3 इंदिरापुरम गाजियाबाद -201012



@ संजय भास्कर

03 नवंबर 2012

........कहीं तुम वो तो नहीं -- संजय भास्कर

 सभी ब्लॉगर साथियों को मेरा सादर नमस्कार काफी दिनों से व्यस्त होने के कारण ब्लॉगजगत को समय नहीं दे पा रहा हूँ  पर अब आप सभी के समक्ष पुन: उपस्थित हूँ !

.........मेरी कविता .....कुछ खो जाना के लिए प्रतुल वशिष्ठ ने कुछ लाइन लिखी है उम्मीद है आप सभी को पसंद आयेगी...........!!




@  रोज़ सुबह उठते हुए

अकसर कुछ खो जाता है ...

कभी अधूरे सपने तो कभी उनका मज़मून.

'क्या देखा था.. कौन-कौन मिले थे' ....प्रश्न थोड़ी-थोड़ी देर में कौंधते हैं.


वैसे ही बचपन में साथ पढ़े

जब चेहरा बदलकर बीस-तीस वर्ष बाद मिलते हैं.

तो कुछ खो सा जाता हूँ...

'कहीं तुम वो तो नहीं', 'तुम्हें कहाँ देखा है' जैसे प्रश्न मन में अनायास घुस आते हैं.


संजय भास्कर ,

आपके मनोभावों की यही खासियत है कि वह सहज गति से प्रवाहित हैं.

मुझे बहुत आनंद आया इस मंथर गति (अंदाज़) में अपनी कुछ बातें कहने में.

इसलिये कह सकता हूँ - ये उम्दा रचना है........ !



.......................बहुत - बहुत शुक्रिया  प्रतुल वशिष्ठ ज़ी 


@ संजय भास्कर 


14 अक्तूबर 2012

एक चिथड़ा सुख लिए भटकता हिन्दुस्तान -- संजय भास्कर


इतिहास की अंधी गुफाओं से गुजरते हुए
आर्यो , मुगलों , अंग्रेजों...
और तथाकथित अपनों की
नीचताओं को देखते-देखते
अपनी ऑंखों में हो चुके मोतियाबिन्द को
अपने भोथरे नाखूनों से
खरोंचने की कोशिश में
ऑंखों की रोशनी खो बैठा
वह आदमी
राजमार्गों से बेदखल होकर
पगडंडियों को अपनी घुच्ची निगाहों से
रौंदते हुए घिसट रहा है!

उसकी फटी जेब में
जो एक टुकड़ा सुख चमक रहा है
वह उसका संविधान है
इसे वह जिसको भी दिखाता है
वही अपने को ,
इससे उपर बताता है ।

गोधूलि की बिखरी हुई लालिमा को
अपने सफेद हो चुके रक्त में मिलाकर
जीने की बेशर्म कोशिश में
वह इसके-उसके-सबके सामने
गिड़गिड़ा रहा है,
और अपने पोलियोग्रस्त शरीर को
खड़ा करने की लाचार कोशिश में
बिना जड़ों वाले पेड़-सा लड़खड़ा रहा है।

वह आदमी कोई और नहीं,
अपना हिन्दुस्तान है
जो कभी ‘‘शाईनिंग इंडिया ’‘ की चमक मे खो जाता है
तो कभी ‘ भारत निर्माण ’ के
पहियों तले रौंद जाता है ।

लेकिन उसकी अटूट जिजीविषा तो देखिए
कि टूटी हुई हड्डियों,
पीब से सने शरीर
और भ्रष्टाचार के कोढ़ से
गल चुके अपने शरीर को
रोज अपने खून के आंसुओं से धोता है
और तिरंगे के
रूके हुए चक्र को गतिमान करने की कोशिश में
खुद को ही अपने कंधों पर ढोता है !

 ( चित्र - गूगल से साभार )

मित्र प्रेम लोधी जी एक बेहतरीन रचना  -- एक चिथड़ा सुख लिए भटकता हिन्दुस्तान --  कविता के माध्यम से  गहन सच्चाई को बयाँ किया है !


@ संजय भास्कर


08 अक्तूबर 2012

आज की ताजा खबर -- अंजु (अनु) चौधरी ( क्षितिजा )

आज की ताजा खबर 
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टीवी का शोर
 दिमाग है गोल 
लिखने का है मन 
पर सूझता नहीं  कुछ 
कैसे कुछ सोचू
कैसे कुछ नया लिखू 
यह तो बस नई पुरानी फिल्मो का संग 
अमिताभ के गाने 
संजय दत की ढिशुम- ढिशुम 
गोविंदा के झटके 
अब क्या करूं 
न्यूज़ चैनल पर रुकता रिमोट 
फिर धमाको से गूंजा मुंबई 
फिर हुए ब्लास्ट 
देखा लाशो के ढेर 
दहकी मुंबई सारी 
गूंजी सब तरफ घायलों की चीखें 
फिर शुरू हुई पुलिस की भाग दौड़ 
लग गई फिर से नाकाबंदी 
शुरू हो गई नेताओ की बयान बाज़ी
 राजनीति के गलियारों में 
शुरू हो गया आरोपों का दौर 
ये है आज की ताजा खबर........................ !!!!

आदरणीय अंजु अनु  चौधरी  ब्लॉगजगत की जानी मानी शक्सियत है 
जिन्हें ब्लॉगजगत में ( अपनों का साथ ) ब्लॉग के माध्यम से जाना जाता है !
ख्याबो को बना कर मंजिल ...बातो से सफर तय करती हूँ ..अपनों में खुद को ढूंढती हूँ ....खुद की तलाश करती हूँ ... .. बहुत सफर तय किया ...अभी मंजिल तक जाना हैं बाकि...जब वो मिल जाएगी तो ...विराम की सोचेंगे |बस ये ही हूँ मैं ...यानी अंजु (अनु ) चौधरी ...शब्दों को सोचना और उन्हें लिख लेना ..ये दो ही काम करने आते हैं....साधारण सी गृहणी ...अपनी रसोई में काम करते करते ...इस सफर पर कब आगे बढ़ गई ये पता ही नहीं चला ...कविता के रूप में जब लेखनी सामने आई ...तो वो काव्य संग्रह में तब्दील हो गई

किसी भी किताब के बारे में लिखना और फिर जिसने उस किताब को लिखा है और फिर उसके बारे में लिखना बहुत अलग अलग अनुभव होता है
........करीब ६ महीने पहले अंजू जी का कविता - संग्रह " क्षितिजा " को पढ़ा पर कभी कुछ दिनों से  क्षितिजा के बारे में लिखने का समय नहीं मिल पाया पर आज उसी से जुड़े कुछ विचार आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ 

अंजू की के काव्य संग्रह की रचनाये विविध विषयों पर आधारित है ......परन्तु संग्रह की रचनाओ का मूल कथ्य स्त्री की सम्पूर्णता को समेटे हुए है !

 ............. क्षितिजा का अर्थ होता पृथ्वी की कन्या ...धरती की कन्या है तो उसका स्वभाव ही नारी युक्त है और वह नारी भाव से घिरी हुई है ..और अंजू जी की अधिकतर रचनाएं है भी नारी के भावों पर ..खुद अपने परिचय में वह कहती है कि" नारी के भावों को शब्द देते हुए उनकी प्रति क्रियाओं को सीधे सपाट शब्दों में अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है "
        
आज वो घर कहाँ
बसते थे इंसान जहाँ
आज वो दिल कहाँ
रिसता था प्यार जहाँ
हर घर की दीवार
पत्थर हो गयी
दिल में सिर्फ बसेरा है गद्दारी का ..सही सच है यह ..हर घर की अब यही कहानी हो चुकी है ..घर कम और मकान अधिक नजर आते हैं जहाँ इंसान तो बसते हैं पर अनजाने से
अंजू जी रचनाओं में प्रेम .इन्तजार ,,कुदरत ,विरह और आक्रोश सभी रंग शामिल हैं 
      
आकाश की कितनी उंचाई 
मैंने नापी है
धरती पर कितनी दूरी तक
बाहें पसारी है
एक सुनहरे उजाले के लिए
निरंतर अब आगे बढ़ रही
एक नयी रोशनी के साए में
खुद को एक राह देने के लिए...!

मेरा विश्वास है यह पुस्तक पठनीय सुखद अनुभूति देने वाली है जो पाठको को बहुत पसंद आयेगी .... !!!!

क्षितिजा के लिये अंजु (अनु) चौधरी को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ...!!!!

पुस्तक का नाम – क्षितिजा

रचना कार --   अंजू (अनु) चौधरी 

पुस्तक का मूल्य – 250/ मात्र

आई एस बी एन – 978-93-81394-03-8

प्रकाशक -  हिन्द युग्म 

१, जिया सराय ,हौज ख़ास , नई दिल्ली - 110016



@ संजय भास्कर 



     




25 सितंबर 2012

.......... नकाब -- संजय भास्कर



आज हर चेहरा सच्चा नहीं 
हर चेहरे पर नकाब है 
सच्चाई को ढकता हुआ नकाब 
कभी इन चेहरे को ढके हुए 
नकाब हटा कर तो देखो 
देखते ही रह जाओगे 
फिर सोचोगे, जो देखा था , वो धोखा था 
हर किसी का चेहरा  होगा अनजान 
जो देखा, जो सोचा, सब झूठ था !
अपनी बातो से दूसरो को भी 
झूठा बनाया !
पर कब तक छुपायेगा 
एक दिन तो सच सामने आयेगा 
और उस दिन वह नकाब हटाएगा.......!!!!!

@ संजय भास्कर 




13 सितंबर 2012

आखिर बुरा क्या है -- संगीता स्वरुप 'गीत' ( उजला आसमाँ )

आखिर बुरा क्या है ?
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मन के दरख्त पर 
जमा ली 
ख्वाहिशो ने अपनी जड़े 
और फलती फूलती जा रही है 
अमर बेल की तरह उतरोतर.
रसविहीन दरख्त मौन है 
बना हुआ पंगु सा 
जब होगा एहसास हकीकत का 
तो हो जाएगी सारी बेलें 
धूल धूसरित.
मन ने सोचा कि
पलने दो अंत में दो 
मिटटी ही नसीब है 
कुछ पल खुश होने दो 
आखिर बुरा क्या ?
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संगीता जी अपने बारे में विचार -- कुछ विशेष नहीं है जो कुछ अपने बारे में बताऊँ... मन के भावों को कैसे सब तक पहुँचाऊँ कुछ लिखूं या फिर कुछ गाऊँ । चिंतन हो जब किसी बात पर और मन में मंथन चलता हो उन भावों को लिख कर मैं शब्दों में तिरोहित कर जाऊं । सोच - विचारों की शक्ति जब कुछ उथल -पुथल सा करती हो उन भावों को गढ़ कर मैं अपनी बात सुना जाऊँ जो दिखता है आस - पास मन उससे उद्वेलित होता है उन भावों को साक्ष्य रूप दे मैं कविता सी कह जाऊं.....!


आदरणीय संगीता स्वरुप 'गीत' ब्लॉगजगत की जानी मानी शक्सियत है 
जिन्हें ब्लॉगजगत में गीत मेरी अनुभूतियाँ और बिखरे मोती ब्लॉग के माध्यम से जाना जाता  है
जिनमे अक्सर संगीता जी मोती जैसी कविताये चुन चुन कर लिखती है  ........अभी कुछ दिन पहले संगीता जी का काव्य - संग्रह " उजला आसमाँ " को पढ़ा उसी से जुड़े कुछ विचार आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ !
संगीता स्वरुप जी के काव्य संग्रह की  कवितायेँ उस नए युग की कवितायेँ है जहाँ पर कवितायों के प्रकाशन के लिए की संपादक की कृपा द्रष्टि पर निर्भर नहीं रहना पड़ता !
और हा एक अलग बात जो संगीता जी की कवितायेँ में प्रमुख रूप से दिखाई देती है वो है सरोकारों के प्रति सजगता , वो साहित्य सरोकारों को बिलकुल नहीं भूली है .............ये बात उनकी कवितओं से पता चलती है | 

...................जैसे भ्रूण हत्या पर संगीता जी की ये पंक्तिया मन को झकझोर देती है
इस बार भी परीक्षण में / कन्या भ्रूण ही आ गया है / इसलिए बाबा ने मेरी मौन पर / हस्ताक्षर कर दिया है |


....................एक और इसी प्रकार की कविता है जो गहरे प्रश्न छोडती हुई एक सन्नाटे को बदती समाप्त होती है पूरी कविता पीड़ा में रची गई है ..................परन्तु जब ये कविता समाप्त होती है आधी आबादी के लिए शोक गीत छोड़ जाती है
एक नवजात कन्या शिशु / जो कचरे के डिब्बे में / निर्वस्त्र सर्दी में ठिठुर / दम तोड़ चुकी थी |


( संगीता जी के कुछ शब्द )  

.....मैं स्वयं नहीं जानती की मैं क्यों लिखती हूँ .....शायद निम्न पंक्तियाँ मेरी भावनाओ को वर्णित कर सके ....!!!
जो दिखता है / आस- पास / मन उससे / उदेलित होता है / उन भावो को / साक्ष्य रूप दे /मैं कविता सी / कह जाऊ...........

( रमेश हठीला जी का कथन ......................संगीता जी की कविताओ में कुछ ऐसा है जो उनकी कविताओं को आम कविताओं से अलग करता है ...........ये कवितायेँ अपने समय का सही प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करती है उनके काव्य संग्रह का शीर्षक उजला आसमाँ वास्तव में स्त्री के
 भविष्य की और इंगित करता है और ये कवितायेँ उस आकाश को पाने की कोशिश में समूची नारी जाती की और से के कदम की तरह है 
\ ये कदम सफल हो .............शुभकामनाएं !!!!!
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मैं आस्मां हूँ ,
एक ऐसा आसमान
जहाँ बहुत से
बादल आ कर इकठे हो गये है
छा गई है बदली
और आसमान का रंग
कला पड़ गया है |

मेरा विश्वास है यह पुस्तक पठनीय सुखद अनुभूति देने वाली है जो पाठको को बहुत पसंद आयेगी .... !!!!

 मेरी और से संगीता स्वरुप जी को काव्य - संग्रह "उजला आसमाँ" के लिए हार्दिक बधाई और ढेरो शुभकामनायें ।


पुस्तक का नाम – उजला आसमाँ

रचना कार --    संगीता स्वरुप 'गीत'

पुस्तक का मूल्य – 125/ मात्र

आई एस बी एन – 978-81-909734-6-5

प्रकाशक -  शिवना प्रकाशन / पी.सी. लैब / सम्राट काम्प्लेक्स बेसमेंट बस स्टैंड सीहोर - 466001
( मध्य प्रदेश )


@ संजय भास्कर 


30 अगस्त 2012

कुछ खो जाना -- संजय भास्कर


कुछ खो जाना भी
अक्सर सुई की
चुभन जैसा होता है
जिसमे दर्द तो उठता है
पर हम जल्दी ही संभल जाते है
जैसे किसी बुजुर्ग व्यक्ति का
चश्मा खो जाना ,
अस्पताल जाना हो और
डाक्टर की पर्ची खो जाना ,
अलमारी से कपडे निकलने हो
और चाबी खो जाना ,
दफ्तर जाने के लिए तैयार बैठे हो
और मोटर साइकल की चाबी खो जाना ,
कुछ चीजे ऐसी होती है !
जो खोने के बाद अक्सर मिल जाती है
.........पर कई बार कुछ ऐसी चीजे
 खो जाती है
जो कभी नहीं मिलती ........!!!!


@ संजय भास्कर

07 अगस्त 2012

आसमान के सितारों को मैंने रोते देखा -- संजय भास्कर

 आप सभी ब्लॉगर साथियों को मेरा सादर नमस्कार काफी दिनों से व्यस्त होने के कारण ब्लॉगजगत को समय नहीं दे पा रहा हूँ  पर अब आप सभी के समक्ष पुन: उपस्थित हूँ अपनी नई कविता के साथ उम्मीद है आप सभी को पसंद आयेगी.......!!

 
आसमान के सितारों को मैंने रोते देखा ,
उदासी का गम ढ़ोते देखा
देखा सब को तड़पते हुए,
सारी रात मैंने पूरे आसमा को तड़पते देखा,
रात की रौशनी को देखा ,
तारो की चमक को देखा
सुबह होते ही इनकी रौशनी को खोते देखा |
अन्दर से चमक दमक खोते देखा
कोई नहीं जताता हमदर्दी तारो पर
बस सबको रात भर
हमने बेफिक्र सोते हुए देखा.......!!









@ संजय भास्कर

17 जुलाई 2012

बेमिसाल इरफ़ान -पान सिंह तोमर--संजय भास्कर



           

बहुत दिनों से पान सिंह तोमर फिल्म देखने की सोच रहा था बहुत चर्चा जो सुनी थी आखिर कल समय मिल ही गया सेट मेक्स पर कल बड़े ध्यान से फिल्म देखी जो बहुत पसंद आई और रात को ९ बजे दोबारा देखी 'पान सिंह तोमर' फिल्म में गाने नहीं हैं  !
एक ऐसे नौजवान की कहानी, जो गरीबी के कारण फौज में भर्ती होता है, भूख मिटाने के लिए रेस ट्रैक पर दौड़ता है, देश के लिए मेडल जीतता है, लेकिन एक दिन बंदूक उठाकर डाकू बन जाता है..... दरअसल यह एक सच्ची घटना है,

दोनों फिल्में किसी न किसी रूप में आपको लड़ते रहना सिखाती हैं, जैसा कि पान सिंह तोमर कहते हैं, रेस में एक असूल होता है जो एक बार आपने रेस शुरू कर दी तो उसको पूरा करना पड़ता है, फिर चाहे आप हारें या जीतें..... आप सरेंडर नहीं कर सकते... खैर आज बातें सिर्फ पान सिंह तोमर की करूंगा...
               फिल्म में पान सिंह का किरदार बहुत ही स्ट्रोंग बनकर उभरता है, उनका अभिनय, संवाद अदायगी पूरी तरह से आपको बांधे रखते हैं... फिल्म के शुरुआत में ही पान सिंह कहता है कि ''बीहड़ में बागी होते हैं, डकैत मिलते हैं पार्लियामेंट में ''  फिल्म में सभी किरदार अपनी अपनी जगह पक्की करते हैं, फिल्म कभी भी बोर नहीं करती... बीच बीच में हलके फुल्के हास्य संवाद आपको थोडा मुस्कुराते रहने का मौका देते हैं... 
             अगर फिल्म के कथानक पर आयें तो पान सिंह हर उस इंसान के अन्दर की आवाज़ है जो सिस्टम से परेशान है, जो देश की आर्मी में इतने साल रहने के बाद में सरकार के खिलाफ ही बन्दूक उठाकर बागी बन जाता है... फिल्म में पान सिंह का वो डायलोग कि सरकार तो चोर है.... देश में आर्मी को छोड़कर सब चोर हैं..... आज के हालात पर करारा तमाचा  है.. अपनी कड़क ठेठ बोली में भी पान सिंह हर बार दुखी नज़र आता है, उसके मन की वो टीस बरबस ही उसके चेहरे पर दिख जाती है कि जब उसने देश के लिए इतने मेडल लाये तब उसे किसी ने नहीं पूछा, और जब उसने बन्दूक उठा ली तो पूरा देश उसके बारे में बात कर रहा है... फिल्म पान सिंह और उस जैसे बागियों के बदले की कहानी के इर्द-गिर्द घूमती रहती है !
                फिल्म जब ख़त्म होती है तब तक मन भारी हो चुका होता है, ये फिल्म आपको ये सोचने पर ज़रूर मजबूर करेगी कि आखिर पान सिंह कब तक बनते रहेंगे... ऐसे लोग कहीं बाहर से नहीं आते, ये तो हर गैरतमंद इंसान के अन्दर रहते हैं... पान सिंह आज भी जिंदा है हमारे अन्दर, जब भी किसी के धैर्य का बाँध टूटता है वो खुल कर सामने आता है... फिल्म के अंत में तिग्मांशु देश के उन भुला दिए गए खिलाडियों को याद करना नहीं भूलते जो सरकार की अनदेखी का शिकार हो गए........ कितने पैसे के अभाव में मर गए और कितनो को अपना गोल्ड मेडल तक बेचना पड़ा........!
            
             अगर आप में से किसी ने अभी तक ये फिल्म नहीं देखी तो जरूर देखें और देखने के बाद ज़रूर बताईयेगा कि कैसी लगी .......!


@ संजय भास्कर 

03 जुलाई 2012

.......कहीं ऐसा तो नहीं--संजय भास्कर

कहीं ऐसा तो नहीं की 
हम इस दुर्लभ जीवन के 
अनमोल क्षणों  को 
गवा रहे है ?
दुनिया की चकाचौंध में   
तो क्यों न हम 
स्वयं में झांके ,
की हम कितने पानी मैं है |
कहीं ऐसा तो नहीं की 
हम अटक गए है 
आलस्य में , परमाद मै 
और भूल बैठे है 
अपने  ध्येय को अपने कर्तव्य को 
तो क्यों हम पहचाने 
समय की महता को 
मेहनत की गरिमा को 
और हमारे कदम बढ उठे 
सृजन के पथ पर
नई मंजिल की ओर............... !!!

( चित्र गूगल से साभार  )

@ संजय भास्कर

24 जून 2012

........मैं लिखता हूँ--संजय भास्कर



इस भाग दौड़ भरी दुनिया में
जब भी समय मिलता है
मैं लिखता हूँ ।
जब समय नहीं कटता मेरा
समय काटने के लिए
मैं लिखता हूँ ।
जब भी लिखता हूँ,
बहुत ध्यान और
शांत मन से लिखता हूँ ,
लिखने से पहले
अपने मन को भेजता हूँ ,
उन गलियारों में
जहाँ से मेरा मन
शब्द इकठ्ठा करता है ,
जिसे मैं कलम के जरिये

अपनी डायरी में सजा सकूं ,
और दुनिया के सामने
अपने मन की बातें 
कह सकूं
कुछ अपने दिल की
सुना सकूँ.... !
आप सबको
अपने शब्‍द संसार से
परिचित करा
सकूँ.............!!

( चित्र गूगल से साभार  )

@ संजय भास्कर  

06 जून 2012

आकांक्षा का दर्पण सदा की " अर्पिता " -- संजय भास्कर


सीमा सिंघल ब्लॉगजगत की जानी मानी शक्सियत है
जिन्हें ब्लॉगजगत में सदा के नाम से जाना जाता  है .........अभी कुछ महीनो पहले सदा जी का कविता- संग्रह " अर्पिता "को पढ़ा उसी से जुड़े कुछ विचार आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ !


मन को छू लें वो शब्‍द अच्‍छे लगते हैं, उन शब्‍दों के भाव जोड़ देते हैं अंजान होने के बाद भी एक दूसरे को सदा के लिए ......!!

कविता संग्रह 'अर्पिता' सामाजिक यथार्थ के मध्य से उठते हुए ज्वलंत सवालों का दस्तावेज लगा स्वानुभूति और भावपूर्ण अभियक्ति है "अर्पिता "............इस कविता संग्रह में सीमा सिंघल जी की छन्द मुक्त उदेश्यपूर्ण कवितायेँ है जो अपने सपनो को हकीकत में बदलना चाहती है !

सदा जी की की रचनाएँ अपने आप में अनूठी है जो सीधे दिल को छूती है हर व्यक्ति की संवेदनाओ को आकृति देती कविताये जीवंत लगती है |

सदा जी रचनाओं की एक और खासियत इनकी रचनाओ के भाव मन को झकझोर देते है 
सदा जी की रचनाये मात्र शब्द कौशल की बानगी नहीं है ........इनकी कविताये सहज होते हुए भी......पाठक के चिंतन को कुरेदता है|
.........................आज भी नारी अपने सपनो के प्रति स्वतंत्र क्यों नहीं है ?

जन्म देने वालो होती एक माँ
फिर भी बेटे को कुल दीपक
बेटी को पराई ही कहते
सब लोग|

एक ऐसा दिल जो सुदूर आकाश गंगा के चमकते सितारों को दामन में भर लेना चाहता है , जो चाँद की शीतलता , फूलों की खुसबू और सितारों को दामन में भरना चाहता है ,तो हो जाती है कविता |

................सदा जी की कलम सचेत करती हुई चलती है -
अभिमान का दाना  तुम नहीं खाना तुम्हे भी अभिमान आ जायेगा


ये सत्य अच्छे प्रयास से नया समाज निर्मित होता है सदा जी की कवितायेँ इस शास्वत सत्य को दोहराती है !
रिश्ते न बढ़ते है रिश्ते न घटते है वो तो उतना ही उभरते है जितना रंग हम उनमे अपनी मोहबत का भरते है  

अब आखिर में "अर्पिता" की  गजल - माँ ने छोड़ी न कलाई मेरी -आपको पढवाते है !


माँ ने छोड़ी न कलाई मेरी

नमी आंसुओ की उभर आई आँखों में जब,
गिला कर गई फिर किसी की बेवफाई का ||

बहना इनका दिल के दर्द की गवाही देता ,
ऐतबार किया क्यों इसने इक हरजाई का ||

कितना भी रोये बेटी बिछड़ के बाबुल से,
दब जाती सिसकियाँ गूंजे स्वर शहनाई  का ||

ओट में घूँघट की दहलीज पर धरा जब पाँव,
चाक हुआ कलेजा आया जब मौका विदाई का ||

जार जार रोये बाबुल माँ ने छोड़ी न कलाई मेरी ,
बहते आंसुओ में चेहरा धुंधला दिखे माँ जाई का ||

 मेरी और से सदा जी को कविता- संग्रह "अर्पिता" के लिए हार्दिक बधाई व ढेरो
शुभकामनाये .............!

@ संजय भास्कर

23 मई 2012

खुद को बांधा है शब्‍दों के दायरे में - - संजय भास्कर



अक्सर हम सभी दूसरो पर
कविता लिखते है
पर क्या कभी किसी ने
अपने आप पर लिखी है कविता
खुद को बांधा है शब्‍दों के दायरे में
किया है खुद का अवलोकन
सूक्ष्‍मता से
शायद नहीं पर 
मैं " भास्कर "
अपने आप पर कविता लिखना चाहता हूँ !
कौन हूँ मैं
और क्या हूँ !
साधारण से परिवार में जन्मा
माता-पिता के अच्छे संस्कार
पा कर बड़ा हुआ
अपनी पढाई पूरी कर
नौकरी करने लगा
जिससे इच्छाओ को पूरा कर सकूं
अपने माता-पिता की
और जीने के लिए
अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने लगा
दुनिया से,
इस छोटी सी जिन्दगी में
मेरा कोई वजूद नहीं 
पर फिर भी 
एक नई शुरुआत कर
...................अपने आप पर कविता लिखना चाहता हूँ !
परखना चाहता हूँ मैं भी
स्‍वयं को शब्‍दों के इस महाज़ाल में... !!!!


@ संजय भास्कर 

12 मई 2012

श्रीमति आशालता सक्सेना का अनकहा सच............संजय भास्कर

श्रीमती आशा लता सक्सेना जी 

आप सभी ब्लॉगर साथियों को मेरा सादर नमस्कार काफी दिनों से व्यस्त होने के कारण ब्लॉगजगत को समय नहीं दे पा रहा हूँ  पर अब आप सभी के समक्ष पुन: उपस्थित हूँ ....!!
 
अभी कुछ दिनों पहले श्रीमती आशालता सक्सेना जी की पुस्तक अनकहा सच ( काव्य संकलन ) पढने को मिला जो  बहुत ही पसंद आया !

जो उन्होंने समर्पण किया है अपने अपनी माता सुप्रसिद्ध कवियित्री स्व. डॉ. (श्रीमती ) ज्ञानवती सक्सेना जी को
 
आशा जी जिन्हें आप सभी आकांशा ब्लॉग में पढ़ते हो आशा जी जिन्होंने हर विषय पर कवितायेँ लिखी है पर ज्यादा तर प्रकृति पर उनकी कविताये मन को बहुत प्रभावित करती हैं |

जीवन में हर व्यक्ति सपने अवश्य देखता है, पर कुछ ही लोगो के सपने साकार होते है जिसे आशा लता जी ने अपने रचना कर्म के स्वप्न को इस आयु में साकार किया है ।
श्रीमती आशा लता सक्सेना उन्ही में से एक है जिन्हें मैं ब्लॉगजगत में माँ का दर्जा देता हूँ !

डॉ. शिव कुमार चौरसिया जी ने उनके बारे में लिखा है :-
 श्रीमती आशा लता सक्सेना जी अपने जीवन में शासकीय सेवा ,घर गृहस्थी ,बेटे बेटियों के पालन पोषण शिक्षा दीक्षा एवं वैवाहिक जिमेदारियां को पूर्ण करते हुए अपने जीवन के तीसरे सोपान में  साहित्य सेवा में प्रवृत हुई है ।
जिस आयु में सामान्य महिलाएं अक्सर देहिक कष्टों का बखान करती है और दुखी-दुखी रहती है उस उम्र आशा जी निरंतर लिखते पढ़ते हुए कविता लेखन कर रही है ......यह एक बड़ी बात है !


............................आशा जी की कविताओ में एक अथक उर्जा ,चिर नूतन उमंग ,सुतः और सकारात्मक सोच परिलक्षित होती है उनका जीवन दर्शन दिखाई देता है जिन्हें आशा जी ने अपने मनके भावो को बड़ी सहजता से अभिव्यक्त किया है !
आशा जी ने अभी तक करीब  पांच सौ रचनाये लिखी है और उन्ही में से सत्तावन रचनाये इस संकलन में समाहित है ।
आशा जी के शब्दों में उनके विचार .......................

मैं तो बस लिख रही हूँ और क्यों लिख रही हूँ , यह नहीं जानती । मेरे मन में तरह तरह के विचार उठते है और इन विचारो के साथ जीवन के कड़वे मीठे अनुभवों का सिलसिला है खुलता जाता है । अनुभूतिय शब्दों का लिबास पहन कर अभिव्यक्त होने लगती है और मैं तो बस उन्हें आकर देती जाती हूँ । यह क्रम पिछले चार-पांच सालो से सतत चल रहा है !
मैं हिंदी साहित्य की विद्यार्थी भी नहीं रही और न ही मैंने काव्य शास्त्र पढ़ा ।इसीलिए साहित्य सृजन  में मेरा परिचय नहीं है, पर मैं बहुत भाग्य शाली हूँ , की मुझे ममतामयी श्रेष्ठ कवियित्री माता से संस्कार मिले है ! यह उनकी संस्कारो का ही फल है विवाह के बाद घर गृहस्थी और शिक्षा सेवा में व्यस्त रही और सेवानिवृति के बाद अध्यन व लेखन से जुडी हूँ  जिसमे मुझे मेरी छोटो बहन कवियित्री श्री मति साधना वैद का भरपूर प्रोत्साहन प्राप्त हुआ है ........!
आशा जी ने अपना अनकहा सच कुछ इस प्रकार व्यक्त किया है -

दो बोल प्यार के बोले होते /पाते निकट अपने
नए सपने नयनों में पलते/ना रहा होता कुछ भी अनकहा |
यदि अपने मन को टटोला होता चाहत की तपिश कभी समाप्त नहीं होती -
अपनी चाहत को तुम कैसे झुटला पाओगे
मेरी चाहत की ऊंचाई ना छू पाओगे कभी 
खुद ही झुलसते जाओगे उस आग की तपिश में |
उम्र  के आखिती पड़ाव पर यदि अपनों का साथ ना हो तो मन दुखी हो जाता है | मन में कसक गहरी होती है-
होती  है कसक
जब कोई साथ नहीं देता 
उम्र के इस मोड़ पर
 नहीं होता चलना सरल 
लंबी कतार उलझनों की 
पार पाना नहीं सहज |
अपने अतीत को कोई भला भुला पाया है अतीत पर यह देखिये -
जाने कहाँ खो गया 
दूर हो गया बहुत 
जब तक लौट कर आएगा 
बहुत देर होजाएगी 
ना पहचान पाएगा मुझे कैसे |
'प्रतिमा सौंदर्य की ' कविता महाप्राण सूर्य कान्त त्रिपाठी की कविता "वह तोडती पत्थर "की याद ताजा कर देती है |  एक मजदूर स्त्री के प्रति सौन्दर्यानुभूति भाव को बखूबी प्रकट किया है -
प्रातः से संध्या तक वह तोड़ती पत्थर 
भरी धूप में भी नहीं रुकती
गति उसके हाथों की |
जीवन की क्षण भंगुरता उन्हें "सूखी डाली "में दिखाई देती है -
एक दिन काटी जाएगी 
उसकी जीवन लीला 
हो जाएगी समाप्त
सोचती हूँ और कहानी क्या होगी 
इस क्षणभंगुर जीवन की  ?
मैं कुछ लिखना चाहती हूँ कविता अनकहा सच की आत्मा है | कहाजाए तो कुछ अतिशयोक्ति नहीं होगी -
अब मैं  लिखना चाहती हूँ 
आने वाली पीढ़ी के लिए 
मैं क्रान्तिकारी  तो नहीं
 पर सम्यक क्रान्ति चाहती हूँ
हूँ एक बुद्धिजीवी 
चाहती हूँ प्रगति देश की 
मृत्यु एक शाश्वत सत्य है -जो जन्मा है मृत्यु को अवश्य प्राप्त होता है -
होती अजर अमर आत्मा 
है स्वतंत्र जीवन उसका 
नष्ट कभी नहीं होता
शरीर नश्वर है 
जन्म है प्रारम्भ 
मृत्यु है अंत उसका |
"कुछ ना कुछ सीख देती है"रचना जीवन में उत्साह -ऊर्जा का संचार करने वाली आशा वादी रचना है -
सूरज  की प्रथम किरण 
भरती जीवन ऊर्जा से
कल कल बहता जल
सिखाता सतत आगे बढ़ना |
प्रत्येक  व्यक्ति का जीवन एक डायरी की तरह है  जिसमें अंकित होती हैं सुख -दुःख ,यादों की खट्टी मीठी बातें 
डायरी का हर पन्ना कोई मिटा नहीं सकता क्यों कि -
पेन्सिल से जो भी लिखा था 
रबर से मिट भी गया 
पर मन के पन्नों पर जो अंकित
उसे मिटाऊँ कैसे ?
अब आखिर में अनकहा सच ( काव्य संकलन ) की पहली रचना आपको पढवाते है !

अनकहा सच  
 कुछ हमने कहा
 कुछ तुमने सुना 
बहुत कुछ छूट गया है अनकहा 
न संबोधन न कोई रिश्ता 
न टोल सके भावो को 
छुप-छुप कर बात कही मन की 
उसे न सजा सके शब्दों में  
संवाद रहित अनजाना रिश्ता  
न जता पाए 
न लिया , दिया कभी कुछ भी 
यह कमी सदा ही रही खलती 
अलग हट कर सोचा होता 
अंतर टटोला होता 
दो बोल प्यार के बोले होते 
पाते निकट अपने नए सपने नैनों में पलते 
.................. न रहा होता कुछ भी अनकहा  ! !

 मेरी और से श्रीमति आशा सक्सेना जी को काव्य संकलन के लिए हार्दिक बधाई व ढेरो 
शुभकामनाये ........!


@  संजय भास्कर