वह मजदूर
जिसमे उत्त्साह था अदम
सह चूका था जो हर सितम
रक्त नलिकाए भी दौड़ रही थी उसकी
पूरी चुस्ती फुर्ती के साथ
जो इस खोखले समाज की राजनीति से
बहुत दूर |
कंधे पर फावड़ा लिए चला जा रहा था
अनजान डगर पर निश्चित बेपनाह
चला जा रहा था इस समाज समुदाय की
गन्दी राजनीति से
बहुत दूर - वह मजदूर
राजनीति सीमित थी उसके लिए यही पर
नसीब था मात्र उसका - दो वक्त की रोटी
मिल जाये सुख चैन से ,
और चलता रहे किसी तरह से
परिवार का गुजर - बसर
ऐसा था ............ वह मजदूर !
चित्र :- ( गूगल से साभार )
-- संजय कुमार भास्कर